SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 705
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यवक्रांत प्राचीन चरित्रकोश यवन - इसे उपदेश दिया की, गर्व करने के क्या दुष्परिणाम | रैभ्य भी अपने पुत्र के द्वारा ही मारा जायेगा। इस होते हैं। प्रकार विलाप करते हुए भरद्वाज मुनि ने रैभ्य को शाप रैभ्य से विरोध-जिस स्थान पर यह तथा इसके | दिया, एवं मृत पुत्र के साथ ही अग्नि में प्रविष्ट हो कर, पिता रहते थे, वहीं पास में ही विश्वामित्र ऋषि का पुत्र | उसने अपनी जान दे दी (म. व. १३७)। रैभ्य भी आश्रम बना कर, अर्वावसु तथा परावसु नामक मुक्ति--कालांतर में भरद्वाज के द्वारा दिये गये शाप अपने पुत्रों के साथ रहता था। रैभ्य के साथ उसकी स्नुषा, के कारण, रेभ्य अपने पुत्र परावसु के द्वारा मारा गया । परावसु की परम सुंदरी पत्नी भी रहती थी। एक बार यह देख कर, रैभ्य के परमसुशील पुत्र अर्वावसु ने उग्र घूमते घूमते यह रैभ्य आश्रम के पास आया, तथा स्नुषा | तप कर के सूर्य तथा देवों को प्रसन्न किया । उसने उनके के रूप को देख कर इतना अधिक पागल हो उठा कि, द्वारा वर प्राप्त कर, भरद्वाज, यवक्रीत तथा रेभ्य को जीवित उसके बार बार मना करने पर भी, इसने उसके साथ कर पितृहत्या के दोष से अपने बंधु पराबसु को मुक्त किया बलात्कार किया। बाद को स्नुषा ने सारी कथा रो रोकर एवं दो अन्य वर भी प्राप्त किये । पहला वर माँगा कि. अपने श्वशुर रैभ्य ऋषि को बतायी। 'मेरे पिता भरद्वाज के द्वारा किये गये वध का स्मरण उसे यवक्रीत की. यह आवारगी एवं निर्लज्ज कामातुरता न रहे,' तथा दूसरा माँगा कि, 'मुझे जो वेद को प्रकाशित की कहानी सुन कर, रैभ्य क्रोध में तमतमाने लगा। उसने करनेवाला सूर्यमंत्र प्राप्त हुआ है, वह हमारे परिवार एवं अपनी दो जटांयें उखाड कर, उन्हे अग्नि में होम कर, परम्परा में सदैवबना रहे। एक राक्षस तथा एक सुंदर स्त्री का निर्माण किया, एवं ___ बाद में इंद्रादि देवों ने यवक्रीत से बताया, 'रैभ्य ने उन्हे यवक्रीत का नाश करने की आज्ञा की। उस गुरु से वेदों का अध्ययन किया है, इसलिए सामर्थ्य में कृत्यारूपी सुन्दर स्त्री ने तप करते हुए यवक्रीत को मोहित वह तुमसे श्रेष्ठ है । भरद्वाज ने अर्वावसु का अभिनंदन किया, एवं इसका समस्त तेज ले लिया । तब राक्षस अपने किया, तथा उसके इस उपकार के लिए बार बार प्रशंसा शूल को ले कर इस पर दौड़ा । यह राक्षस को भस्म करने की। अंत में यह अपने पिता के साथ उसके आश्रम के लिए पानी धुंडने लगा। उसे न देख कर भागता भागता रहने गया (म. व. १३८)। यह नदियों के पास गया, किंतु वहाँ नदीयाँ में भी पानी न यवन--कृष्ण के द्वारा मारे गये 'कालयवन' राजा था । तब इसने पिता की होमशाला में आ कर, उसमें घुस का नामान्तर (म. व. १३.२९; कालयवन देखिये)। कर, प्राण बचाना चाहा। किंतु आश्रम के अंधे शूद्र के द्वारा २. हैहयराज का एक साथी, जिसे सगर ने पराजित यह बाहर ही रोक लिया गया । उसी समय अवसर देख किया था। पश्चात् यह वसिष्ठ ऋषि की शरण में गया, कर, राक्षस ने अपने शूल से प्रहार कर इसके वक्षःस्थल को जिसने इसे जीवितदान तो दिया; किन्तु इसके सर के बाल विदीर्ण किया, एवं इसका वध किया। इस प्रकार रैभ्य निकालने की, एवं दाढ़ी रखने की सजा इसे थी (पद्म. उ. ऋषि की श्रमपूर्वक संपादित की हुयी विद्या के आगे | २०)। यवक्रीत की वरप्राप्ति की विद्या ठहर न सकी। ३. एक लोकसमूह, जो गांधार देश के सीमाभाग में बाद में ब्रह्मयज्ञ कर के भरद्वाज मुनि आश्रम आये, तथा स्थित 'अरिआ' एवं 'अर्कोशिया' प्रदेश में रहते थे। यह देख कर कि, आज होमशाला की अग्नि प्रज्वलित नहीं प्राचीन वाङ्मय में 'अयोनियन' ग्रीक लोगों के लिए है, उन्होंने इसका कारण अपने गृहरक्षक शूद्र से पूछा। 'यवन' शब्द प्रायः प्रयुक्त किया जाता है। इन युनानी उस शूद्र ने सारी कथा कह सुनायी, तथा भरद्वाज तुरंत | लोगों को फारसी भाषा में 'यौन' कहते थे, जिसका ही ही समझ गये कि, मना करने पर भी यह अवश्य ही रूपान्तर प्राकृत भाषा में 'यौन', एवं संस्कृत में 'यवन' रैभ्य के आश्रम गया होगा । पुत्र को धरती पर पड़ा | नाम से किया गया प्रतीत होता है। हुआ देख कर भरद्वाज ने कहा, 'हे मेरे एकलौते पुत्र, उपनिवेश--सिकंदर के हमले के पूर्वकाल में योन तुम्हें बार बार मना किया, किंतु तुम न माने । वेदों के लोगों का एक उपनिवेश, अफगाणिस्तान में बल्ख एवं ज्ञान को पा कर, तुम घमण्डी, तथा कठोर बन कर पाप- | समरकंद के बीच के प्रदेश में बसा हुआ था, जिन लोगों कर्म में रत हुए हो । आज मैं पुत्रशोक में कितना विह्वल का राजा 'सेसस' था। पाणिनि के व्याकरण में 'यवन हूँ। तुम्हारी मृत्यु तो हुई, किंतु तुमको मरवानेवाला | लिपि' का निर्देश है, जो संभवतःप्रागमौर्य थी, एवं इन्ही ६८३
SR No.016121
Book TitleBharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Shastri Chitrav
PublisherBharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
Publication Year1964
Total Pages1228
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy