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याज्ञवल्क्य
५. विश्वामित्र के ब्रह्मवादी पुत्रों में से एक (म. अनु. ४. ५१ )।
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याज्ञवल्क्य वाजसनेय- एक सर्वश्रेष्ठ विद्वान्, वाद पटु, एवं आत्मज्ञ ऋषि, जो 'शुक्लयजुर्वेद संहिता' का प्रणयिता माना जाता है । यह उद्दालक आरुणि नामक आचार्य का शिष्य था (बृ. उ. ६. ४. २. माध्य.)। यह सांस्का रिक एवं दार्शनिक समस्या का सर्वश्रेष्ठ अधिकारी विद्वान् था, जिसके निर्देश शतपथ ब्राह्मण, एवं बृहदारण्यक उप निषद में अनेक बार प्राप्त हैं ( श. बा. १. १. १. ९; २. ३. १. २१; ४. २. १.७१ बृ. उ. २.१.२ माध्य.)
ओल्डेनबर्ग के अनुसार, यह विदेह देश में रहनेवाला था। जनक राजा के द्वारा इसे संरक्षण मिलने की जो कथा वृहदारण्यक उपनिषद में प्राप्त है, उससे भी यही प्रस्थापित होता है । किन्तु इसका गुरु उद्दालक आरुणि कुरुपंचाल देश में रहनेवाला था, जिस कारण इसको भी उसी देश के निवासी होने की संभावना है ।
प्राचीन चरित्रकोश
नाम — यज्ञवल्क्य का वंशज होने के कारण, इसे याज्ञवल्क्य ' पैतृक नाम प्राप्त हुआ होगा । बृहदारण्यक उपनिषद में इसे ' वाजसनेय' कहा गया है (बृ. उ. ६. ३. ७–८, ६.५.२ः श. बा. १४.९.४.३३) । महीघर के अनुसार, वाजसनि का पुत्र होने के कारण, इसे वाजसनेय नाम प्राप्त हुआ होगा। इसके ' मध्यंदिन नामक शिष्य के द्वारा इसके यजुर्वेद संहिता का प्रचार होने के कारण, इसे ' माध्यंदिन ' भी कहते है ।
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विष्णु में इसे ब्रह्मरात का पुत्र, एवं वैशंपायन का शिष्य कहा गया है (विष्णु. ३.५.२ ) । वायु, भागवत, एवं ब्रह्मांड में इसके पिता का नाम क्रमशः ब्रह्मवाह', ‘देवरात’ एवं ‘ब्रह्मराति’ प्राप्त है ( वायु. ६०.४१ भा. १२.६.६४; ब्रह्मांड. ३.३५.२४ ) । ब्रह्मा के शरीर से उत्पन्न होने के कारण, इसे 'ब्रह्मवाह' नाम प्राप्त हुआ था (बायु-६०.४२) । महाभारत में इसे वैशंपायन ऋषि का भतिजा एवं शिष्य कहा गया है (म. शां. ३०६ ७७६०)। उद्दालक शिष्य याश्वस्य एवं वैशंपायन शिष्य वाश्वस्य दोनों संभवतः एक ही होंगे। उनमें से उद्दालक इसका दार्शनिक शास्त्रों का, एवं वैशंपायन वैदिक सांस्कारिक शास्त्रों का गुरु था।
याज्ञवल्क्य
इनके अतिरिक्त, हिरण्यनाभ कौशल्य नामक इसका और एक गुरु था, जिससे इसने योगशास्त्र की शिक्षा प्राप्त की थी (२.६२.२०८९ वायु ८८,२०७१ दिष्णु. ४. ४.४७; भा. ९.१२.४ )।
योग्यता-याज्ञवल्य के दो प्रमुख पहलू माने जाते हैं। यह वैदिक संस्कारों का एक श्रेष्ठ ऋषि था, जिसे 'शुक्ल यजुर्वेद ' एवं ' शतपथ ब्राह्मण' के प्रणयन का श्रेय दिया जाता है। इसके साथ ही साथ यह दार्शनिक समस्याओं का सर्वश्रेष्ठ आचार्य भी था, जिसका विवरण 'बृहदारण्यक उपनिषद में विस्तारशः प्राप्त है वहाँ इसने अत्यंत प्रगतिशील दार्शनिक विचार सरलतम भाषा में व्यक्त किये है, जो विश्व के दार्शनिक साहित्य में अद्वितीय माने जाते हैं।
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यजुः शिष्य परंपरा -- याज्ञवल्क्य यजुः शिष्यपरंपरा में से वैशंपायन ऋषि का शिष्य था। वैशंपायन ऋषि के कुल ८६ शिष्य थे, जिनमें श्यामायनि, आसुरि, आलंबि, एवं याज्ञवल्क्य प्रमुख थे ( वैशंपायन देखिये) । वैशंपायन ने 'कृष्णयदुर्वेद की कुल ८६ संहिताएँ बना कर, याज्ञवल्क्य के अतिरिक्त अपने बाकी सारे शिष्यों को प्रदान की थीं। वैशंपायन के शिष्यों में से केवल याज्ञवल्क्य को ' कृष्णयजुर्वेद संहिता प्राप्त नहुषी, जिस कारण इसने 'शुक्लयजुर्वेद ' नामक स्वतंत्र संहिता - .. ग्रंथ का प्रणयन किया ।
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कृष्णयजुर्वेद का शुद्धीकरण - याज्ञवल्क्य ने कृष्णयर्वेद के शुद्धीकरण का महान कार्य सम्पन्न किया एवं उसी वेद के संहिता में से चालीस अध्यायों से युक्त नये. ब्रा. क्रययुर्वेद का निर्माण किया (श. बा. १४.१.४.३२ )। याज्ञवल्क्य के पूर्व कृष्णयजुर्वेद संहिता में यविषयक मंत्र एवं यशप्रक्रियाओं की सूचनायें उलझी हुई सन्निहित थीं। उदाहरणार्थ, तैत्तिरीय संहिता में * इति छिनत्ति ' मंत्र प्राप्त है । यहाँ ' इपेत्वेति ' ( इषे त्वा ) वैदिक मंत्र है, जिसके पठन के साथ 'छिनति' ( तोड़ना ) की प्रक्रिया बताई गयी है ।
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याश्वस्य की महानता यह है कि इसने इसे बाकी भाँति वैदिक मंत्रमागों को अलग कर उन्हें क् संहिता में बाँध दिया, एवं ' इति छिनत्ति जैसे याशिक प्रक्रियात्मक भागों को अलवा कर ब्राह्मण ग्रन्थों में एकत्र किया।
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कृष्णर्वेद के इस शुद्धीकरण के विषय में, याशवल्क्य को अपने समकालीन आचायों से ही नहीं, परिक, अपने गुरु वैशंपायन से भी झगड़ा करना पड़ा। आगे चल कर संहिताविषयक धर्मत्रयसम्बन्धी यह बादविवाद, एक देशव्यापी आन्दोलन के रूप में उठ खड़ा हुआ अन्त में यह विवाद हस्तिनापुर के सम्राट जनमेजय (तृतीय) के
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