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याज्ञवल्क्य
प्राचीन चरित्रकोश
याज्ञवल्क्य
पास तक जा पहुँचा, और उसने याज्ञवल्क्य की विचार- ईश उपनिषद--शुक्लयजुर्वेद संहिता का चालीसवाँ धारा को सही कह कर उसका अनुमोदन किया। अंतिम अध्याय 'ईश उपनिषद' अथवा 'ईशावास्य
जनमेजय की राजसभा में जनमेजय का राजपुरोहित | उपनिषद' से बना हुआ है। इस उपनिषद में केवल उस समय वैशंपायन था, जिसे छोड कर यज्ञों के अध्वर्यु- अठारह मंत्र है, फिर भी, वह प्रमुख दस उपनिषदों में से कर्म के लिए उसने याज्ञवल्क्य को अपनाया । किन्तु इसके एक माना जाता है । शंकराचार्य से ले कर विनोबाजी तक परिणामस्वरूप, जनमेजय के विरुद्ध उसकी प्रजा में के सारे प्राचीन एवं आधुनिक आचार्य, उसे अपना नित्यअत्यधिक क्षोभ की भावना फैलने लगी, जिस कारण उसे पाठन का ग्रंथ मानते है । इस उपनिषद में, 'सारा संसार राजसिंहासन को परित्याग कर वनवास की शरण लेनी ईश्वर से भरा हुआ है' (ईशावास्यमिदं सर्वम् ), यह पड़ी। इतना हो जाने पर भी, जनमेजय ने अपनी जिद्द सिद्धान्त बहुत ही सुंदर तरीके से कथन किया गया है । न छोड़ी, और याज्ञवल्क्य के द्वारा ही अश्वमेधादि यज्ञ इसी उपनिषद के अन्य एक मंत्र में, धनलोभ का निषेध करा कर, 'महावाजसनेय' उपाधि उसने प्राप्त की। इसके | किया गया है। परिणाम स्वरूप वैशंपायन और उसके अनुयायियों को शतपथ ब्राह्मण-शुक्लयजुर्वेद का ब्राह्मण ग्रंथ 'शतपथ मध्यदेश छोड़ कर पश्चिम में समुद्रतट, एवं उत्तर में हिमालय | ब्राह्मण है। इस ग्रंथ में चौदह काण्ड, एवं सौ अध्याय हैं। की शरण लेनी पड़ी।
उनमें से १-४ एवं १०-१४ काण्डों में याज्ञवल्क्य के इस प्रकार, धार्मिक आधार पर खड़ी हुई याज्ञ- 'यज्ञप्रक्रिया' 'देवताविज्ञान' आदि विषयक सिद्धान्त वल्क्य और वैशंपायन के बीच के विवाद ने राज- ग्रथित किये गये हैं । इस ग्रंथ के ५-९ काण्डों में तुर नैतिक जीवन के आदी का आमूल परिवर्तन किया, कावषेय एवं शांडिल्य के सिद्धान्तों का संग्रह याज्ञवल्क्य जो भारतीय इतिहास में एक अनूठी घटना साबित हुयी। के द्वारा किया गया है । इस ग्रंथ का प्रचंड विस्तार, एवं इस प्रकार सर्वसाधारण से लेकर राजाओं तक को भी अपने उसमें प्रकट किये गये प्रगतिशील विचारों के कारण, प्रभाव से बदल देनेवाला याज्ञवल्क्य एक युगप्रवर्तक आचार्य | 'शतपथब्राह्मण' वैदिक साकरिक सिद्धान्तों का एक बन गया।
अद्वितीय ग्रंथ माना जाता है। : शुक्ल यजुर्वेद का प्रणयन-अन्य वैदिक आचार्यों इसी ग्रंथ के अंतिम भाग में 'बृहदारण्यक उपनिषद' के समान याज्ञवल्क्य भी कर्म एवं ज्ञान के सम्मिलन को का समावेश किया गया हैं । ब्रह्मज्ञान एवं आत्मज्ञान के महत्त्व प्रदान करता था। इसी कारण, 'शुक्लयजुर्वेद' विषय में याज्ञवल्क्य का तत्वज्ञान इस उपनिषद में समाविष्ट का प्रणयन करते समय, इसने उस ग्रंथ के अन्त में 'ईश | किया गया है। उपनिषद' का भी साम्मिलन किया है । शुक्लयजुर्वेद वैदिक कात्यायन के वार्तिक में 'शतपथ ब्राह्मण' को पुराणकर्मकाण्ड का ग्रंथ हैं । उसे ज्ञान विषयक 'ईश उपनिषद' | कल्प में विरचित अन्य ब्राह्मण ग्रंथों से उत्तरकालीन कहा के अठारह मंत्र जोड़ने के कारण, उस ग्रंथ की महत्ता गया है (पुराणप्रोक्तेषु ब्राह्मणकल्पेषु) (पा. सू. ३.३. कतिपय बढ़ गयी है । वैदिक कर्मकाण्ड का अंतिम साध्य | १०५)। आत्मज्ञान की प्राप्ति है। इसी तत्त्व का साक्षात्कार'ईश वैशंपायन से विरोध--अपने गुरु वैशंपायन से उपनिषद' से होता है।
याज्ञवरक्य का विरोध किस कारण से हुआ, इसके संबंध अपने समय के सर्वश्रेष्ठ उपनिषदकार माने गये | में अनेकानेक कथाएँ पुराणों में प्राप्त है, जिनमें ऐतिहासिकता याज्ञवल्क्य ने कर्म एवं ज्ञान का सम्मिलन करने के बदले काल्पनिकता अधिक प्रतीत होती है। वाले ' शुक्लयजुर्वेद ' की रचना की, इस घटना को एक बार सब ऋषियों ने नियत समय पर मेरु पर्वत पर वैदिक साहित्य के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान दिया | एकत्र होने का निश्चय किया। उस समय यह भी तय जाता है। वैदिक परंपरा मंत्रों के अर्थ से संगठित है। वह हुआ कि, जो भी ऋषि समय पर न आयेगा, उसे ब्रह्महत्या अर्थ मूलस्वरूप में रखने के लिए, प्रसंगवश मंत्रों के | का पाप लगेगा। दैवयोग से, वैशंपायन समय पर न पहुँच शब्दों में बदला किया जा सकता है, इसी क्रांतिकारी | सका, तथा उसे ब्रह्महत्या का पाप सहना पड़ा। तब उसने विचारधारा का प्रणयन याज्ञवल्क्य ने किया, एवं यह | ब्रह्महत्या के अपने पाप को समाप्त करने के लिए, अपने वैदिक सूक्तकारों में एक श्रेष्ठ आचार्य बन गया। | सभी शिष्यों से प्रायश्चित्त लेने के लिए कहा। उस समय,