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________________ याज्ञवल्क्य प्राचीन चरित्रकोश याज्ञवल्क्य याज्ञवल्क्य ने आत्मप्रशंसा से वशीभूत हो कर कहा, चौबीस प्रश्नों के उत्तर दिये हैं (म. शां. ३०६.२६'सब शिष्यों की क्या आवश्यकता है ? मैं अकेला ही ८०)। काफ़ी हूँ। इसकी ऐसी गर्वोक्ति सुन कर वैशंपायन दार्शनिक समस्याओं का आचार्य–'बृहदारण्यक उपक्रोधित हो उठा, तथा उसने इससे कहा, 'तुमने मुझसे निषद' के दूसरे, तीसरे एवं चौथे अध्यायों में याज्ञवल्क्य जो वेद सीख लिये हैं, वे मुझे वापस करो । की दार्शनिक महत्ता, एवं सिद्धान्तों का परिचय प्राप्त होता गुरु के शाप के कारण, सीखे हये सारे वेद इसे निगलने | है। उनमें से दूसरे अध्याय में, याज्ञवल्क्य का अपनी पडे, जिसे वैशंपायन के बाकी शिष्यों ने उठा लिये। वेद- ब्रह्मवादिनी पत्नी मैत्रेयी से तत्वज्ञान पर संवाद प्राप्त है। विहीन होने के कारण, यह विद्याहीन, स्मृतिहीन एवं | तीसरे अध्याय में विदेह देश के जनक राजा के दरबार कष्टरोगी बन गया। किन्तु पश्चात . सरस्वती की कृपा से | में इसके द्वारा अनेकानेक तत्वज्ञानियों से हए वाद-विवादों इसने नया वेद प्राप्त कर लिया, एवं यह पूर्व की भाँति की जानकारी दी गयी है; एवं चौथे अध्याय में स्वयं तेजस्वी बन गया (म-शां.३०६; वायु.६१.१८-२२)। जनक राजा से हुए इसके तत्वज्ञान पर संवाद प्राप्त है। ___ सूर्य से वेदप्राप्ति--सूर्य से वेद स्वीकार करते समय, इन सारे संवादों से याज्ञवल्क्य के प्रागतिक व्यक्तित्व, याज्ञवल्क्य ने अश्व का रूप धारण किया था, जिस कारण एवं दार्शनिक तत्वज्ञान पर काफ़ी प्रकाश पडता है। इसके वेदों तथा शिष्यों को 'वाजिन् ' नाम प्राप्त हुआ ___ जनक राजा के दरबार में - जनक राजा के यज्ञ(वायु. ६१.२२)। अन्य पुराणों के अनुसार, वेद लेते मंडप में कुरुपंचाल देश के अनेकानेक तत्वज्ञ उपस्थित समय इसने नहीं, बल्कि सूर्य ने अश्व का रूप धारण किया हुये थे। याज्ञवल्क्य ने उन सारे तत्वज्ञों को वाद-विवाद था (भा. १२.६.७३, ब्रह्मांड. २.३५.२६-७४)। में परास्त किया। बृहदारण्यक उपनिषद के अनुसार, याज्ञवल्क्य ने जिन आचार्यों के साथ वाद-विवाद किये स्कंद में इसके गुरु का नाम वैशंपायन न देकर, शाकल्य थे, उन के नाम, एवं वाद-विवाद के विषय निम्न दिया है एवं अपने आथर्वण मंत्र के बल से शाकल्य ने प्रकार हैं:इसकी समस्त वेदविद्या वापस लेने की कथा वहाँ बतायी १. अश्वल–'मृत्यु से मुक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है (स्कंद. ६.१२९)। है(बृ. उ. ३.१)। . . कालनिर्णय-सूर्य से वेदविद्या सीखने के बाद, इसने | २. जारत्कारद आतंभाग--आठ ग्रह एवं आठ वह विद्या जनक, कात्यायन, शतानीक, जनमजय (तृताय) उपग्रह कौनसे हैं' (बृ. उ. ३.२)। आदि राजाओं को सिखायी थी (विष्णु. ४.२१.२)।। ३. भुज्यु लाह्यायनि--'मृत्यु के उपरांत परलोक में इससे याज्ञवल्क्य ऋषि शतानीक एवं जनमेजय (तृतीय) क्या होता है; यज्ञ करनेवाले परिक्षित् राजा को कौन सी राजाओं का समकालीन प्रतीत होता है। गति मिली (बृ. उ. ३.३)। महाभारत में, याज्ञवल्क्य के द्वारा देवराति जनक के ४. उषस्त चाक्रायण-'सर्वअन्तर्यामी आत्मा' (बृ. सभा में वाद-विवाद करने का निर्देश प्राप्त है । किन्तु | उ. ३.४)। उस समय देवराति जनक का होना असंभव प्रतीत होता ५. कहोल कौषीतकेय- 'सर्वअन्तर्यामी आत्मा'(बृ. है। उस समय जो जनक था, उसका स्पष्ट उल्लेख यद्यपि | उ. ३.५)। अप्राप्य है, तथापि शतानीक, जनमेजय इत्यादि याज्ञवल्क्य ६. गागी वाचक्नवी-जगत का मूल कारण क्या है। के समकालीन राजाओं से प्रतीत होता है कि, उस समय | (बृ. उ. ३.६)। का जनक उग्रसेन होगा (पुष्करमालिन् देखिये)। एक ७. वाचक्नवी--'ब्रह्म' (बृ. उ. ३.८)। तर्क यह भी दिया गया है कि, 'दैवराति ' जनक का ८. उद्दालक आरुणि—'अन्तर्यामी आत्मा'; 'परलोक' विशेषण न होकर, याज्ञवल्क्य का विशेषण है (पं. | (बृ. उ. ३.७)। भगवत्दत्त- वैदिक वाङमय का इतिहास, पृ. २६४)। ९. विदग्ध शाकल्य-- 'देव कितने है' (बृ. उ. महाभारत में, जनक एवं विश्वावसु गंधर्व के साथ | ३.९)। याज्ञवल्क्य के द्वारा किये तत्त्वज्ञानविषयक संवाद का निर्देश उपरिनिर्दिष्ट आचार्यों के सिवा, याज्ञवल्क्य में निम्नप्राप्त है (म. शा २९८-३०६)। वहाँ इसने विश्वावसू के | लिखित आचार्यों से भी तत्वज्ञानसंबंधी वाद-विवाद किये ६८८
SR No.016121
Book TitleBharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Shastri Chitrav
PublisherBharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
Publication Year1964
Total Pages1228
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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