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सीता
प्राचीन चरित्रकोश
सीता
सलाह को न मान कर,रावण ने अपनी प्रथमजात कन्या को | वह लंका ले जाने लगा। रास्ते में ऋष्यमूक पर्वत पर पेटिका में बन्द कर जनकपुरी में गड़वा दिया। इसी कन्या | इसने अपने उत्तरीय वस्त्र, एवं अलंकार फेंक दिये, ने आगे चल कर रावण के समस्त कुल का नाश कर दिया | जिससे राम को पता चल जाए कि यह हरण की (दे. भा. ४२)।
गयी है। (४) जनकात्मजा सीता--महाभारत में सर्वत्र सीता | पश्चात् रावण ने इसे लंका नगरी में स्थित अशोकवन को जनक राजा की अपनी कन्या माना गया है (म. व. में राक्षसियों की रखवाली में रख दिया, एवं वह प्रतिदिन २५८.९)।
कामातुर हो कर अपने वश में लाने के लिए इसकी सीता के जन्मसंबंधित उपर्युक्त सारी कथाएँ कल्पनारम्य | प्रार्थना करने लगा। उस समय उसने इसे डराया, धमकाया प्रतीत होती है, जिनकी रचना राम के द्वारा किया गया एवं काफ़ी प्रलोभन भी दिखाये। किन्तु यह अपने सतीत्व रावणवध गृहीते मान कर की गयी हैं।
पर अचल रही । रावण के आते ही लोकलज्जा में सीतास्वयंवर--एक बार परशुराम अपना प्रचंड शिव | लिपटी हुई सीता अपने जंघाओं से अपने पेट को, एवं धनुष ले कर जनक राजा से मिलने आया। परशुराम का | अपने दोनो बाहुओं से वक्षःस्थलों को ढंक देती थी (वा. यह धनुष इतना बड़ा था, कि उसे ले जाने के लिए | रा. मुं. १९.३) । परस्त्री पर पापदृष्टि रखने वाले दो सौ पचास बैल-जोड़ियों की शक्ति आवश्यक थी। रावण की इसने काफी निर्भत्सना की । किन्तु रावण पर परशराम का यह अजस्त्रं धनुष इसने सहजही उठा लिया, इसका कुछ भी असर न हुआ, एवं अपने राक्षसियों . एवं उसे घोड़ा बना कर यह खेलने लगी। यह देख कर | के द्वारा वह इसे वश में करने का प्रयत्न करता ही रहा। इसके दैवी अंश के संबंध में परशुराम को आभास मिल गयी, हनुमत् से भेंट--एक दिन सीता के शोध के लिए एवं उसने जनक राजा को अपना धनुष दे कर आज्ञा दी, | राम के द्वारा भेजा गया हनुमत् अशोकवन में आं . 'जो वीर इस धनुष के तोड़ने का सामर्थ्य रखता हो, पहुँचा, एवं उसने राम के द्वारा दी गयी अभिज्ञान की. : उसी के साथ ही सीता का विवाह कर देना (वा. रा. अँगुठी इसे दिखा कर अपना परिचय दिया। उसी समय बा. ६६.२६; आ. रा. सार. ३)।
अपने पीठ पर इसे बिठा कर, रावण के कारावास से इसे . परशुराम की आज्ञा के अनुसार, जनक राजा ने इसका
मुक्त करने की तैयारी भी हनुमत् ने दिखायी । उस स्वयंवर उद्घोषित किया। इस स्वयंवर में उपस्थित सारे
समय एक क्षत्रियकुलोत्पन्न वीरस्त्री के नाते हनुमत् के राजा धनुष तोड़ने में असमर्थ रहे । अन्त में अयोध्या
इस प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए इसने कहाके राम दाशरथि राजा ने शिवधनुष को भङ्ग कर सीता
बलैः समग्रैर्यदि मां हत्वा रावणमाहवे । का वरण किया (वा. रा. बा. २३.)।
विजयी स्वपुरी रामो नयेत्तत् स्याद्यशस्करम् ॥ वनवासगमन- राम के वनवासगमन के समय |
यथाहं तस्य वीरस्य वनादुपधिना हृता । वन की भयानकता बता कर राम ने इसे अत्यधिक
रक्षसा तद्भयादेव तथा नाहति राघवः। भयभीत किया, किन्तु 'जहाँ राम वहाँ सीता' ऐसे कह
(वा. रा. सु. ६८.१२-१३)।। कर यह अपने निश्चय पर अटल रही (वा. रा. अयो. (मेरे पति राम ही रावण को परास्त कर मुझे ले २६-३०)। उस समय इसने यह भी कहा कि, | जाएँगे । रावण के समान लुकछिप कर मुझे ले जाना राम ज्योतिर्विदों के द्वारा बारह वर्ष के वनवास का जातक पहले | को, तथा उसकी कीर्ति को शोभा न देगा)। ही कहा जा चुका है (वा. रा. अयो. २९.८; अ.रा. २. अग्निपरीक्षा-युद्ध के पश्चात् राम ने विभीषण को . ४.७६ )। अपनी सारी आयु राजप्रसादों में व्यतीत करने- इसे अपने पास लाने की आज्ञा दी। तदनुसार सुस्नात वाली सीता को वनवास का सारा ही जीवन अननुभूत हुई यह मूल्यवान् वस्त्र एवं आभूषण पहन कर, एवं था, यहाँ तक कि, वल्कल पहनना भी इसे न आता | शिबिका में बैठ कर यह राम से मिलने गयी । वहाँ ध्यानस्थ था। किन्तु राम के साथ ही यह वानवासिक जीवन से | बैठ हुए राम को इसके आगमन की वार्ता विभीषण ने जल्द ही परिचित हो गयी।
| सुनायी। सीताहरण-जनस्थान में रावण ने इसका धोखे से विभीषण के पीछे-पीछे चल कर, यह लाज में लिपटी ' हरण किया, एवं अत्यधिक विलाप करते हुए सीता को हुई अपने पति के सम्मुख गयी। किन्तु राम के चेहरे पर
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