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________________ अंगिरस् प्राचीन चरित्रकोश अंगिरस् बृहत्कीर्ति, बृहज्ज्योति, बृहद्ब्रह्मन् , बृहन्मनस् , बृहन्मन्त्र, शुद्धिमयूख में अंगिरस ने शातातप का मत ग्राह्य माना है। बृहद्भास तथा बृहस्पति नामक पुत्र तथा भानुमती, रागा| स्मृतिचन्द्रिका में उपस्मृतियों का उल्लेख करते समय (राका ), सिनीवाली, अर्चिष्मती (हविष्मती), महिष्मती, | अंगिरस का निर्देश है । वहाँ इसके गद्य अवतरण भी दिये महामती तथा एकानेका (कुहू ) नामक सात कन्याएं थीं | हैं। अंगिरस ने मनु का धर्मशास्त्र श्रेष्ठ माना है (स्मृतिचं. (म. व. २०८)। बृहत्कीर्त्यादि सब बृहस्पति के विशेषण | | आह्निक ) । आनन्दाश्रम में १६८ श्लोकों की, प्रायश्चित्त हैं, ऐसा नीलकण्ठ का मत है । इसके अलावा भागवत | बताने वाली अंगिरसस्मृति है। उसमें प्रायश्चित्त तथा में सिनीवाली, कुहू , राका तथा अनुमति नामक इसके स्त्री के संबंध में विचार किया गया है । मिताक्षरा में तथा कन्याओं का उल्लेख है (भा. ४.१.३४) । इसके पुत्र | वेदाचार्यों की स्मृतिरत्नावली में बृहद्अंगिरस दिया है । बृहस्पति, उतथ्य तथा संवर्त हैं (म. आ. ६०.५; भा. | मिताक्षरा में मध्यम अंगिरस का कई बार उल्लेख आया है। ९.२.६६)। इसके अतिरिक्त वयस्य (पयस्य), अंगिरस के देवपुत्र-आत्मा, आयु, ऋत, गविष्ठ, शांति, घोर, विरूप तथा सुधन्वन् भी इसके पुत्र थ दक्ष, दमन, प्राण, सत्य, सद तथा हविष्मान् । (म. अनु. १३२.४३)। . | मुख्य गोत्रकार-अजस (अयस्य ), उतथ्य, ऋषिज इसने चित्रकेतु के पुत्र को सजीव करके उस का ( उषिज), गौतम, बृहस्पति, वामदेव तथा संवर्त । सांत्वन किया (भा. ६.१५, चित्रकेतु १. देखिये )। उपगोत्रकार-अत्रायनि, अभिजित्, अरि, अरुणाअंगिरस का धर्मशास्त्र व्यवहार के अतिरिक्त अन्य यनि, उतथ्य, उपबिंदु, ऐरिडव, कारोटक, कासोरू, केराति, सब विषयों में इसका उल्लेख पाया जाता है। याज्ञ- | कोठा कौशल्य (ग), कौष्टिकि, क्रोष्टा, क्षपाविश्वकर, क्षीर, गोतम, औषिकि को वल्क्य ने इसका उल्लेख किया हैं | अंगिरस के मतानुसार, | तौलेय, पाण्डु, पारिकारारिरेव ( पारःकारिररेव ), पार्थिव परिषद में १२१ ब्राह्मणों का समावेश होता है। (याज्ञ. | (ग), पौषाजिति (पौष्यजिति), भार्गवत, मूलप, राहुकर्णि १.९ विश्व.)। धर्मशास्त्र का अवलंब न करते हुए स्वेच्छा (रागकर्णि), रेवाग्नी, रौहिण्यायनि, वाहिनीपति, वैशालि . से किसीने अगर कृत्य किया तो वह निष्फल हो जाता सजीविन, सलौगाक्षि, सामलोमकि, सार्धनेमि, सुरैषिण, - है (याज्ञ. १.५०)। घोर पातक से अपराधी माने गये सोम तथा सौपुरि, ये सब उपगोत्रकार अंगिरा, उशिज, ब्राह्मणों के लिये, वज्र नामक व्रत अंगिरस ने बताया, ऐसा | सवचोतथ्य इन तीन प्रवरों के हैं। • उल्लेख विश्वरूप में पाया जाता है (याज्ञ.३.२४८)। प्रायश्चित्त के संबंध में, विश्वरूप ने (याज्ञ. ३.२६५) इसके दो श्लोक __ अग्निवेश्य, आत्रेयायणि, आपस्तंबि, आश्वलाय नि, दिये हैं। इनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, स्त्रीवध के संबंध में उडुपति, एकेपि, कारकि ( काचापि ), कौचकि, कौरुक्षेत्रि, विचार किया गया है। कुछ पशुपक्षियों के वध के संबंध | कोरुपति, गांगोदधि, गोमेदगंधिक, जैत्यद्रौणि, जैवलायनि, • में भी प्रायश्चित्त बताया है (याज्ञ. ३. २६६)। इसी में तृणकर्णि, देवरारि, देवस्थानि, याख्येय, धमति, भगवान् अंगिरस कहकर बडे गौरव से इसका उल्लेख किया | (भूनित), नायकि, पुष्पान्वेषि, पैल, प्रभु, प्रावहि, प्रावेपि. गया है। परिषद की घटना से संबंधित इसके तेरह श्लोक फलाहार, बर्हिसादिन् , बाष्कलि, बालडि, बालिशायनि, अपरार्क ने (२२-२३) दिये हैं। मिताक्षरा में शंख तथा | | ब्रह्मतन्वि (ब्रह्म तथा तवि), मत्स्याच्छाद्य, महाकपि, अंगिरस के सहगमन-संबंध में काफी श्लोक दिये गये हैं महातेज (ग), मारुत, मार्टिपिंगलि, मूलहर, मौंजवृद्धि, वाराहि, शालंकायनि, शिखाग्रीविन् , शिलस्थलिसरिद्भवि (याज्ञ. १.८६ )। अपरार्क ने (१०९.११२) सहगमन साद्यसुग्रीवि, सालडि (भालुठिवालुठि), सोमतन्वि (सोम संबंध में, चार श्लोक दिये हैं जिसमें कहा है कि, ब्राह्मण स्त्री को सती नहीं जाना चाहिये। मेधातिथि ने ( मनु. ५, | तथा तवि), सौटि, सौवेष्टय तथा हरिकर्णि ये सब उपगोत्रकार अंगिरा बृहस्पति तथा भरद्वाज इन तीन प्रवरों के हैं। १५७.) अंगिरस का सती संबंध में यह मत दे कर, उसके प्रति अपनी अमान्यता व्यक्त की है। इसके अशौच | काण्वायन (ग), कोपचय (ग), क्रोष्टाक्षिन् . गाधिन संबंध के श्लोक, मिताक्षरादि ग्रंथों में तथा इतरत्र आये | गार्ग्य, चक्रिन् , तालकृत, नालविद, पौलकायनि, बलाकिन् हैं । सप्त अंत्यजों के संबंध में, इसका एक श्लोक हरदत्त ने | (बालाकिन् ), बहुग्रीविन् , भाष्कृत, मधुरावह, मार्कटि, (गौतम २०.१) दिया है। विश्वरूप ने लिखा है कि, | राष्ट्रपिण्डिन, लावकृत, लेन्द्राणि, वात्स्यतरायण, श्यामासुमन्तु ने अंगिरस का मत ग्राह्य माना है (याज्ञ. ३.२३७) | यनि, सायकायनि, साहरि तथा स्कंदस, ये सब उपगोत्रकार
SR No.016121
Book TitleBharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Shastri Chitrav
PublisherBharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
Publication Year1964
Total Pages1228
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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