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महावीर.
प्राचीन चरित्रकोश
महावीर
राजा आगे चल कर जैन मुनि बन कर स्वयं ही धर्मप्रसार | फर्क है कि, जहाँ पार्श्व वस्त्र का भी संग्रह न कर अच्चेलक का कार्य करने लगे।
(नम ) रहना पसंद करते है, वहाँ वर्धमान के द्वारा निर्वाण-इस प्रकार धर्मसाधना एवं धर्मप्रसार का अपने अनुयायियों को श्वेतवस्त्र परिधारण करने की एवं कार्य अत्यंत यशस्वी प्रकार से निभाने के पश्चात्, मल्ल उनका संग्रह करने की संमति दी गयी है। देश के पावा नगरी में स्थित कमलसरोवरान्तर्गत द्वीप पार्श्व एवं वर्धमान के इस तत्त्वसाधर्म्य के कारण, इन प्रदेश में वर्धमान का निर्वाण हुआ। इसके निर्वाण का दोनों आचार्यों के अनुयायियों ने श्रावस्ती में एक महासभा दिन कार्तिक कृष्ण अमावास्या; समय प्रातःकाल में सूर्योदय । बुला कर इन दोनों सम्प्रदायों को सम्मिलित करने का निर्णय के पूर्व; एवं साल ५२७ इ. पू. (विक्रम. पूर्व. ४७०; शक. लिया। आगे चल कर, इन दोनों सांप्रदायों के सम्मीलन पूर्व. ६०५) माना जाता है।
| के द्वारा जैन धर्म का निर्माण हुआ (उत्तराध्ययन . इसके निर्वाण के समय, लिच्छवी राजा चेटक एवं | सूत्र. २३)। मल्लराजा ब्रांत्यक्षत्री हस्तिपाल उपस्थित थे। पश्चात् अहिंसा तत्त्व की महत्ता--दैनंदिन मानवीय जीवन में मल्ल एवं लिच्छवी के जनपदों के नौ नौ राजप्रमुखों ने अहिंसा तत्त्व को सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दृष्टि से जितना एकत्रित आ कर इसका निर्वाणविधि सुयोग्य रीति से सुस्पष्ट, उँचा एवं व्यापक रूप वर्धमान के द्वारा दिया निभाया, एवं उसी रात्रि को जैन धर्म की परंपरा के गया है, उतना अन्य किसी भी धर्मद्रष्टा में नहीं दिया अनुसार दीपोत्सव भी मनाया। कई अभ्यासकों के होगा। इस प्रकार अहिंसाचरण को दिया यह सर्वोच्च अनुसार, भारतवर्ष में दीपावलि का त्यौहार वर्धमान के विकसित रूप वर्धमान के आचारसंहिता का एक प्रमुख निर्वाण के समय किये गये दीपोत्सव से ही प्रारंभ हुआ। वैशिष्टय कहा जा सकता है। इसके निर्वाण के साथ साथ 'महावीर निर्वाणसंवत्' का वर्षमान का अनेकान्तवाद-आचार संहिता के साथ प्रारंभ हुआ, जो 'वीरसंवत् ' नाम से जैनधर्मीय लोगों में
ही साथ, आत्मज्ञान एवं मुक्ति प्राप्त करने के लिए आज भी प्रचलित है।
वर्धमान का एक स्वतंत्र तत्त्वज्ञान भी था, जो 'अनेकान्त___ आचारसंहिता-महावीर के द्वारा प्रणीत धमविषयक | वाद' नाम से सुविख्यात है। इस तत्त्वज्ञान के अनुसार तत्त्वज्ञान इसके पंचसूत्रात्मक आचारसंहिता में संग्रहित है, आत्मा को सद्गति केवल सदाचरण से ही प्राप्त होती है, जो इसके २५० साल पहले उत्पन्न हुए पार्श्वनाथ के द्वारा | जिसका मूल दैनंदिन मानवीय जीवन में अहिंसाचरण ही प्रणीत चतुःसूत्रात्मक आचारसंहिता से काफी मिलती कहा जा सकता है। जुलती है।
___ वर्धमान का कहना था कि, इंद्रियोपभोग के आधिक्य महावीर के द्वारा प्रणीत पंचसूत्रात्मक आचारसंहिता से आत्मा मलिन हो जाती है। इसी कारण आत्मा की के सूत्र निम्नप्रकार है:- १. किसी भी जीवित प्राणी अथवा | पवित्रता अबाधित रखने के लिए सर्वोत्कृष्ट मार्ग इंद्रियकीटक की हिंसा न करना (अहिंसा); २. किसी भी दमन है, जो केवल सद्विचार एवं सद्धर्म से साध्य हो वस्तु का किसी के दिये बगैर स्वीकार न करना (अया चि- | सकता है। कत्व); ३. अनृत भाषण न करना (सत्य); ४. आजन्म | वर्धमान का क्रियावाद--जैन सूत्रों में कुल ३६३ ब्रह्मचर्यत-व्रत का पालन करना (ब्रह्मचर्य); ५. वस्त्रों के सांप्रदायों का निर्देश प्राप्त है, जिनमें निम्नलिखित चार प्रमुख अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु का संचय न करना थे- १. क्रियावाद; २. अक्रियावाद; ३. अज्ञानवाद; ४. (अपरिग्रह)।
विनयवाद । इनमें से महावीर स्वयं 'क्रियावाद' सांप्रदाय का वर्धमान के इस तत्त्वज्ञान में से पहले तीन तत्त्व पार्श्व पुरस्कर्ता था । इस सांप्रदाय के अनुसार, मानवीय के तत्वों से बिलकुल मिलते जुलते है। अंतिम दो तत्त्व आयुष्य का बहुत सारा दुःख मनुष्य के अपने कर्मों के पार्श्व के 'अपरिग्रह ' नामक एक ही तत्त्व से लिये गये हैं, परिणामरूप ही होते है, एवं इस दु:ख के बाकी सारे फर्क केवल इतना है कि, जहाँ पाच ब्रह्मचर्य को अपरिग्रह | कारण प्रासंगिक होते हैं । मानवीय जीवन के ये दुःख में ही समाविष्ट करता है, वहाँ वर्धमान ब्रह्मचर्य को स्वतंत्र जन्म, मृत्यु एवं पुनर्जन्म के दुश्चक्र से उत्पन्न होते तत्त्व बता कर उसे ज्यादा महत्त्व प्रदान करते हैं। पाव हैं । इस दुःख से छुटकारा पाने के लिए आत्मज्ञान एवं वर्धमान के अपरिग्रह की व्याख्या में अन्य एक | एवं सदाचरण ये ही दो मार्ग उपलब्ध है। प्रा. च. १४१]
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