________________
महावीर
जैन व्यक्ति
महावीर
बौद्वधर्म से तुलना-यद्यापि वर्धमान एवं गौतम बुद्ध | (४) विष्णुकुमार; (५) नदिमित्र; (६ ) अपराजित दोनों भी अनीश्वरवादी एवं वैदिक धर्म के विरोधी (७) गोवर्धन; (८) श्रुत केवलि भद् बाहु-ये पाँच थे, फिर इन दोनों के धार्मिक तत्त्वज्ञान में पर्याप्त फर्क है। आचार्य जंबुस्वामिन् के पश्चात् क्रमशः जन संघ के जहाँ बुद्ध इंद्रियोसभोग के साथ साथ तपःसाधना को भी आचार्य बन गये। इनमें से अंतिम आचार्य भद्रबाहु का त्याज्य मान कर इन दोनो के बीच का 'मध्यम मार्ग' निर्वाण ३६५ इ. पू. में हो गया। प्रतिपादन करते है, वहाँ वर्धमान ता एवं कृच्छ्र को जीवन- सांप्रदायभेद-भद्रबाहु की मृत्यु के पश्चात् जैनधर्म सुधार का मुख्य उपाय बताता है । तपःसाधना को पाप- 'उदीच्य' (श्वेतांबर ) एवं 'दाक्षिणात्य' (दिगंबर) नाशन का सर्वश्रेष्ठ उपाय माननेवाले जैन तत्त्वज्ञान की इन दो सांप्रदायों में विभाजित हुआ। इ. पू. ३री 'अंगुत्तर' एवं 'टीका निपात' आदि ग्रंथों में व्यंजना | शताब्दी में मध्यदेश के द्वादशवर्षीय अकाल के की गयी है।
कारण, भद्रबाहु नामक जैन आचार्य अपने सहस्रावधि ___ ग्रंथ-इसके नाम पर निम्नलिखित बारह ग्रंथ उपलब्ध शिष्यों के साथ मध्यप्रदेश छोड़ कर दक्षिण भारत की हैं, जो इसके तत्त्वज्ञान का संग्रह कर इसके निर्वाण के ओर निकल पड़े। पश्चात् ये लोग कनाटक देश में 'श्रवण पश्चात् ग्रंथनिबद्ध किये गये है। इन सारे ग्रंथों की रचना वेलगोल' नामक स्थान में आ कर स्थायिक हुए, एवं अर्धमागधी भाषा में की गयी है:-१. आचारांग, २, आगे चल कर 'दाक्षिणात्य' अथवा 'दिगंबर' सांप्रदाय सूत्रकृतांग; ३. स्थानांग; ४. समवायांग; ५. भगवती: नाम से प्रसिद्ध हुए। ६. अंतकृदशांग; ७. अनुत्तरोपपातिकदशांग; ८. विपाक; आचार्य स्थूलभद्र के नेतृत्व में बहुत सारे जैन मुनि ९. उपासकदशांगः १०. प्रश्नव्याकरण; ११. ज्ञाताधर्म- मध्यदेश में ही रह गये, जो आगे चल कर, 'श्वेतांबर कथा; १२. दृष्टिवाद।
जैन ' नाम से प्रसिद्ध हुए। परंपरा--वर्धमान की मृत्यु के पश्चात् , जैन धर्म की उपर्युक्त सांप्रदायों की संक्षिप्त जानकारी निम्नप्रभार परंपरा अबाधित रखने का कार्य इसके शिष्य प्रशिष्यों ने है:-- किया। इसके इन शिष्य प्रशियों में निम्नलिखित प्रमुख १. दिगंबर जैन-आचार्य भद्रबाहू के नेतृत्व में श्रवण
बेलगोल में स्थायिक हुए जैन लोग आगे चल कर दक्षिण (१) इंद्रभूति गौतम --वर्धमान के निर्वाण के पश्चात् भारत के विभिन्न प्रदेशों में जैन धर्म का प्रसार करने लगे। यह प्रमुख गणधर बन गया। वर्धमान के धर्मविषयक | दक्षिण भारत में आने के पश्चात् अपने कठोर नियम, तत्त्वज्ञान को, एवं उपदेशों को सुव्यस्थित रूप में गठित आचारविचार, एवं तात्त्विकता से ये पूर्व से ही अटल एवं वर्गीकृत करने का कार्य इसने किया।५१५ इ. पू. में रहे। इसी कारण भारत के अन्य सभी सांप्रदायों से ये इसका निर्वाण हुआ।
अधिक सनातनी, एवं तत्त्वनिष्ठुर साबित हुए। बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध एवं न्यायसूत्र के ! २. श्वेतांबर जैन--आचार्य स्थूलभद्र के नेतृत्व के मध्य अक्षपाद् गौतम का यह समकालीन था। किंतु फिर भी देश में रहनेवाले जैन श्रवणों को अत्यंत दुर्धर अकाल से इन दोनों व्यक्तियों से यह सर्वथा भिन्न व्यक्ति था। सामना देना पड़ा। इसी दुरवस्था के कारण, इनके
(२) अर्हत् केवली सुधर्माचार्य--यह इंद्रभूति गौतम आचारविचार, शिथिल पड़ गये, एवं इन लोगों की ज्ञान के पश्चात् जैन धर्म संघ का प्रधान गणधर बन गया। साधना भी क्षीण होती गयी। इन लोगों का केंद्र५०३ इ. पू. में इसका निर्वाण हुआ।
स्थान सर्वप्रथम मगध देश के पाटलिपुत्र नगर में था, (३) जंबुस्वामिन्-यह अर्हत् केवली के पश्चात् जिस कारण इन्हें 'मागधी' नामान्तर प्राप्त था। आगे जैनधर्म संघ का प्रमुख बन गया। अपने पूर्वायुष्य में चल कर ये लोग पाटलिपुत्र छोड़ कर उज्जैनी में आ कर यह चम्मा के कोट्याधीश बणिक का पुत्र था। किन्तु रहने लगे। अन्त में ये लोग सौराष्ट्र में बलभीपुर नगर में आगे चल कर जैन मुनि बन गया। मथुरा नगरी के समीप निवास करने लगे। ये ही लोग पहली शताब्दी के अन्त स्थित चौरासी नामक स्थान पर इसने घोर तपस्या की | में श्वेतांबर जैन नाम से सुविख्यात हुए।
थी। अन्त में इसी स्थान पर ४६५ इ. पू. में इसका (३) मथुरा निवासी जैन-उत्तरापथ प्रदेश में जैनों निर्वाण हुआ।
| के अनेक उपनिवेश थे, जो आगे चल कर मथुरानगरी ९१२२