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जन व्यक्ति
महावीर
अनुगामिनी थीं। बाकी पाँच कन्याओं का विवाह निम्नलिखित राजाओं से हुआ था-१. मगधराजा विचिसार २. कौशांबीनरेश शतानीकः २. दशार्णराज दशरथ ४. सिंधुसौवीरनरेश उदयन ५. अवंतीनरेश बण्ड प्रद्योत । चेटक राजा के परिवार के ये सारे राजा आगे चलकर महावीर के अनुयायी बन गये।
उपर्युक्त राजाओं के अतिरिक्त निम्नलिखित राजा भी महावीर के समकालीन एवं अनुयायी थे. दधिवाहन ( चंपादेश ); २. जितशत्रु (कलिंग ); ३. प्रसेनजित् (श्रावस्ति ); ४. उदितोदय (मथुरा); ५. जीवंधर (मांगद ) ६. पिदा (पीन्यपूर) ७. विजयसेन (पपुर); (चाल) हस्तिनापुरनरेश
तपस्या फलिंगनरेश जितशत्रु की कन्या यशोदा के साथ महावीर का विवाह हुआ था । किन्तु आगे चल कर इसके मन में विरक्ति उत्पन्न हुई । तीस वर्ष की आयु में अपने ज्येष्ठ बन्धु की आज्ञा से कर इसने घर छोड़ दिया (६७० ई. पू.)। कई अभ्यासकों के अनुसार, यशोदा के साथ इसके विवाह का प्रस्ताव जब हो रहा था, उसी समय अर्थात् विवाह के पूर्व ही इसने अपना घर छोड़ दिया ।
महावीर
लाख लोगों ने जैन धर्म को स्वीकार किया । वर्धमान का यह शिवसमुदाय मुनि, आवक, आर्यिका एवं आविका इन चारों में विभाजित था। इनमें से तापसजीवन का आचरण कर धर्मप्रचारका कार्य करनेवाले प्रचारक एवं प्रचारिका को 'मुनि ' एवं 'आर्यिका ' कहा जाता था । गृहस्थधर्म का आचरण कर जैन धर्मतत्त्वों का पालन करनेवाले जैनधर्मानुयायी 'भावक एवं आधिका ' श्राविका कहलाते थे।
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जाति, वर्ण, वर्ग, लिंग आदि भेदों के निरपेक्ष रह कर, हरएक व्यक्ति को यह अपने तत्त्वज्ञान का उपदेश प्रदान करता था, एवं कौनसा भी मेदाभेद न मान कर हर व्यक्ति को इसके धर्म में प्रवेश प्राप्त होता था इस प्रकार इसके आयक एवं आविका शिष्यपरिवार में भारत के सभी भागों के, सभी वर्णों के, एवं सभी जातियों के स्त्री पुरुष समाविष्ट थे । भारत के बाहर भी गांधार, कपिशा, पारसिक आदि देशों में इसका शिष्यपरिवार उन हुआ था। इसके विकासंघ के प्रमुख का कार्य मगवाम्रा | चेलना पर सौंपा गया था।
धर्मसंगठन जैन धर्म के प्रचारकार्य का आजन्म पालन करनेवाले मुनि, एवं आर्यिका कुल नौ गणों (वृंदों) में विभाजित थे, एवं उनके संचालन का . का ग्यारह गणधरों पर निर्भर था। वर्तमान का मु शिष्य गौतम गणेश महावीर उनका प्रमुख माना जाता था । वर्धमान के ग्यारह गणधरों के नाम निम्नप्रकार :-१. इंद्रभूति गौतम २२. वायुभूति, ४. आर्यव्यक्त; ५. सुधर्म; ६. मण्डिकपुत्रः ७. मोयपुत्रः ८. अकंपित ९. अचल १०. मैत्रेयः ११. कौण्डिन्य गोत्रीय प्रभास |
पश्चात् बारह वर्षों तक यह अनेकानेक वनों में घूमता एवं तपस्या करता रहा। अन्त में ५४७ . पू. में बिहार प्रान्त में जैकग्राम में या नदी के किनारे एक शालवृक्ष के नीचे ध्यानावस्था में ही इसे केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। इस प्रकार यह सर्पश, सर्वदर्शी अर्हत् एवं परमात्मन् बन गया । केवलज्ञान प्राप्ति के समय इसकी आयु ४२ वर्ष की थी।
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धर्मप्रचार का कार्य करनेवाले आर्थिक संघ' की अध्यक्षा महासती चंदना थी, जो वैशालि के चेटक राजा की ज्येष्ठ कन्या थी ।
प्रथम समवशरणसभा -- केवलज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् यह पंचशैलपुर नामक नगरी के समीप में स्थित विपुलाचल नामक पर्वत पर आ पहुँचा। वहाँ श्रावण कृष्ण प्रतिपदा के दिन इसने 'प्रथम समवशरण सभा' का आयोजन किया, जहाँ इसने जैनधर्म का तत्त्वज्ञान उपस्थित साधकों को अर्धमागधी लोकभाषा में कथन किया । वर्धमान का यह सर्वप्रथम धर्मप्रवचन गौतम बुद्ध के द्वारा सारनाथ में किये गये 'धर्मचक्रप्रवर्तन' के प्रथम प्रवचन इतना ही महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इस प्रवचन के लिए उपस्थित ओताओं में मगध देश का सुविख्यात सम्राट श्रेणिक विसार प्रमुख था।
पर्यटन अपने तत्वज्ञान के प्रचाराचे वर्धमान भारतवर्ष के तत्वाधीन सारे जनपदों में एवं ग्रामों में खातार तीस वर्षों तक घूमता रहा । इन जनपदों में से मिथिला, मगध, कलिंग, एवं कोशल जनपदों में इसका संचार अधिकतर रहता था। इसी कार्य में यह गांधार, कपिशा जैसे बृहत्भारतीय देशों में भी गया जैसे पहले ही कहा शिष्यशाखा -- वर्धमान का तत्वज्ञान इतना प्रभावी जा चुका है कि, भारत के बहुतसारे जनपदों के प्रमुख शाबित हुआ कि, इसके जीवनकाल में ही लगभग पाँच | इसके शिष्यों में शामिल थे। यही नहीं, इनमें से अनेक
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