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________________ बलि वैरोचन प्राचीन चरित्रकोश बाल वैरोचन अमृत प्राप्त हो एवं उसकी सहाय्यता से देवदैत्यसंग्राम महाभारत एवं मत्स्य में निम्नलिखित केवळ सात में देवपक्ष विजय प्राप्त कर सके । दैत्यपक्ष के पास 'मृत- | रत्नों का निर्देश प्राप्त है:-सोम, श्री (लक्ष्मी), सुरा, संजीवनी विद्या' थी, जिसकी सहाय्यता से युद्ध में मृत | तुरग, कौस्तुभ, धन्वन्तरि, एवं अमृत (म. आ. १६. हुए सारे असुर पुनः जीवित हो सकते थे। देवों के | ३३-३७; मत्स्य. २५०-२५१)। पास ऐसी कौनसी भी विद्या न होने के कारण, युद्ध में वे पराजित होते थे। इसी कारण देवों ने समुद्रमंथन का | | इंद्र-बलि संग्राम-समुद्रमंथन हुआ, किंतु राक्षसों को आयोजन किया, एवं उसके लिए दैत्यों का सहयोग प्राप्त कुछ भी प्राप्त न हुआ । अतएव राक्षसों ने संघठित हो किया। समुद्रमंथन का यह समारोह चाक्षुषमन्वन्तर में | कर देवों पर चढ़ाई कर दी। देवों-दैत्यों के इस भीषण युद्ध में बलि ने अपनी राक्षसी माया से इंद्र के विरोध में हुआ, जिस समय मंत्रद्रुम नामक इंद्र राज्य कर रहा था ऐसा युद्ध किया कि, उसके हारने की नौबत आ गयी। (भा. ८.८; विष्णु. १. ९; मत्स्य, २५०-२५१)। इस युद्ध में इसने मयासुर द्वारा निर्मित 'वैहानस' विमान समुद्रमंथन का समारोह एकादशी के दिन प्रारंभ हो | का प्रयोग किया। इंद्र की शोचनीय स्थिति देख कर कर द्वादशी के दिन समाप्त हुआ। एकादशी के दिन, । दिन, | विष्णु प्रकट हुए, तथा उन्होंने बलि के मायावी जाल को उस मंथन से सर्व प्रथम 'कालकूट' नामक विष उत्पन्न काट फेंका। पश्चात् बलि इंद्र के वज्रद्वारा मारा गया। हुआ, जिसका शंकर ने प्राशन किया। पश्चात् अलक्ष्मी बलि के मर जाने पर, नारद की आज्ञानुसार, इसका मूत' नामक भयानक स्त्री उत्पन्न हुई, जिसका विवाह श्रीविष्णु | शरीर अस्ताचल ले जाया गया, जहाँ पर शुक्राचार्य के द्वारा उद्दालक नामक ऋषि के साथ किया गया। तत्पश्चात् स्पर्श तथा मंत्र से यह पुनः जीवित हो उठा (भा. ११. ऐरावत नामक हाथी, उच्चैःश्रवस् नामक अश्व एवं ४६-४८)। धन्वन्तरि, पारिजातक, कामधेनु, तथा अप्सरा इन रत्नों का उद्भव हुआ। द्वादशी के दिन लक्ष्मी उत्पन्न हुई, ___ इंद्रपदप्राप्ति-बलि के जीवित हो जाने पर शुक्राचार्य जिसका श्रीविष्णु ने स्वीकार किया। तत्पश्चात् चंद्र एवं ने विधिपूर्वक इसका ऐन्द्रमहाभिषेक किया, एवं इससे अमृत उत्पन्न हुए। अमृत से ही तुलसी का निर्माण हुआ विश्वजित् यज्ञ भी करवाया । पूर्णरूपेण राज्यव्यवस्था को अपने हाथ ले कर इसने सौ अश्वमेध यज्ञ भी किये (पद्म. ब्र. ९. १०)। (भा. ८.१५.३४)। .. . समुद्रमंथन से प्राप्त रत्न-समुद्रमंथन से निमोण हुए विश्वजित यज्ञ के उपरांत यज्ञदेव ने प्रसन्न हो कर, रत्नों के नाम, संख्या एवं उनका क्रम के बारे में पुराणों में इसे इंद्ररथ के समान दिव्य रथ, सुवर्णमय धनुष, दो अक्षय एकवाक्यता नहीं है। एक स्कंदपुराण में ही इन रत्नों के तूणीर तथा दिव्य कवच दिये। इसके पितामह नाम एवं क्रम निम्नलिखित दो प्रकारों में दिये गये हैं: प्रह्लाद ने कभी न सूखनेवाली माला दी। शुक्राचार्य १. लक्ष्मी, २. कौस्तुभ, ३. पारिजातक, ४. धन्वन्तरि, ने एक दिव्य शंख, तथा ब्रह्मदेव ने भी एक माला इसे ५. चंद्रमा, ६. कामधेनु, ७. ऐरावत, ८. अश्व अर्पित की (म. शां. २१६.२३)। (सप्तमुख), ९. अमृत, १०. रम्भा, ११. शाङ्ग धनुष्य, प्रह्लाद के द्वारा शाप--इसप्रकार सारी स्वर्गभूमि बलि १२. पांचजन्य शंख, १३. महापद्मनिधि तथा, १४. के अधिकार में आ गयी। देवतागण भी निराश हो कर हालाहलविष (स्कंद. ५..१. ४४)। । देवभूमि छोड़ कर अन्यत्र चले गये। १. हालाहलविष, २. चंद्र, ३. सुरभि धेनु, ४. इसके राज्य में सुख सभी को प्राप्त हुआ, किन्तु कल्पवृक्ष, ५. पारिजातक, ६. आम्र, ७. संतानक, ८. ब्राह्मण एवं देव उससे वंचित रहे । उन्हें विभिन्न प्रकार कौस्तुभ रत्न (चिंतामणि), ९. उच्चैःश्रवस् , १०. चौसष्ट के कष्ट दिये जाने लगे, जिससे ऊब कर वे सभी विष्णु से हाथियों के समूह के साथ ऐरावत, ११. मदिरा, १२. फरियाद करने के लिए गये। सब ने विष्णु से अपनी विजया, १३. भंग, १४. लहसुन, १५. गाजर, १६. दुःखभरी व्यथा कह सुनाई । विष्णु ने कहा, 'बलि तो धतूरा, १७. पुष्कर, १८. ब्रह्मविद्या, १९. सिद्धि, २०. हमारा भक्त है, पर तुम्हारे असहनीय कष्टों को देख कर, ऋद्धि, २१. माया, २२. लक्ष्मी, २३. धन्वन्तरि, २४. | उनके निवारणार्थ में शीघ्र ही वामनावतार लूँगा' (ब्रह्म. अमृत (स्कंद. १. १. ९-१२)। ७३)।
SR No.016121
Book TitleBharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Shastri Chitrav
PublisherBharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
Publication Year1964
Total Pages1228
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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