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वराह
प्राचीन चरित्रकोश
वरुण
माह-अवतार का अन्वयार्थ--विष्णु के दस अवतारों में के कारण शाप दिया था (न. अनु. १८.२३-२५: से मत्स्य, कूर्म एवं वराह ये 'दिव्य, अर्थात मनुष्यजाति , गृत्समद १. देखिये )। के उत्पत्ति के पूर्व के अवतार माने जाते हैं। विष्णु वरिन्-एक सनातन विश्वदेव (म. अनु. ९१. के मानुषी अवतार अर्धमनुष्याकृति नृसिंह से, एवं | ३३)। वामन अवतार से प्रारंभ होते है। इससे प्रतीत वरीताक्ष-- एक असुर, जो पूर्वकाल में पृथ्वी का होता है कि, मत्स्य, वराह एवं कूर्म अवतार पृथ्वी के उस शासक था (म. शां. २२०.५६)। पाठभेद-'वीरताम्र' । अवस्था में उत्पन्न हुए थे, जिस समय पृथ्वी पर कोई भी , वरीयस्--(वा.) एक राजा, जो भागवत के अनुमनुष्य प्राणि का अस्तित्व नहीं था। प्राणिजाति की सार पुलह राजा का पुत्र था। इसकी माता का नाम उत्क्रान्ति के दृष्टि से भी मत्स्य, कर्म, वराह यह क्रम गति था। सुयोग्य प्रतीत होता है । क्यों कि, प्राणिशास्त्र के अनुसार
२. सावर्णि मनु के पुत्रों में से एक । सधि में सर्वप्रथम जलचर प्राणि (मत्स्य) उत्पन्न हुए, वरु--एक व्यक्तिनाम (ऋ. ८.२३.२८; २४.२८; एवं तत्पश्चात् क्रमशः जमीन पर घसीट कर चलनेवाले २६.२)। इसका निर्देश प्रायः सर्वत्र सुषामन् के साथ (कर्म), स्तनोंवाले ( वराह), एवं अन्त में मनुष्यजाति प्राप्त है ( सुपामन देखिये)। का निर्माण हुआ। इस प्रकार पुराणों में निर्दिष्ट विष्णु के वरु आंगिरस-एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०. दैवी अवतार प्राणिजाति के उत्क्रान्ति के क्रमशः विकसित | ९६)। होनेवाले रूप प्रतीत होते हैं।
वरुण-एक सर्वश्रेष्ठ वैदिक देवता, जो वैदिक साहित्य प्राणिशास्त्र की दृष्टि से. प्राणीजाति के उत्पत्ति के पूर्व | में आकाश का, एवं वैदिकोत्तर साहित्य में समुद्र का प्रतीक समस्त सृष्टि जलमय थी, जहाँ के कीचड़ में सर्वप्रथम | माना गया है। प्राणिजाति की उत्पत्ति हुई। इस दृष्टि से देखा जाये तो, वैदिक साहित्य में-- इंद्र के साथ वरुण भी प्रजापति ने वराह का रूप धारण कर समुद्र का सारा | एक महत्तम देवता माना गया है। नियमित रूप से कीचड़ पानी के बाहर लाया, एवं उसी कीचड़ से सर्व- प्रकाशित होनेवाले मित्र (सूर्य) देवता से संबंधित प्रथम पृथ्वी का, एवं तत्पश्चात् पृथ्वी के प्राणिसृष्टि का होने के कारण, वैदिक साहित्य में वरुण सृष्टि के नैतिक निर्माण किया, यह तैत्तिरीय ब्राह्मण में निर्दिष्ट कल्पना एवं भौतिक नियमों का सर्वोच्च प्रतिपालक माना गया है। उत्क्रान्तिवाद की दृष्टि से सुयोग्य प्रतीत होती है। वैदिकोत्तर साहित्य में, सृष्टि के सर्वोच्च देवता के रूप में
वैदिक वाङ्मय में सर्वत्र ब्रह्मा को सृष्टि का निर्माण प्रजापति का विकास होने पर, वरुण का श्रेष्ठत्त्व धीरे धीरे करनेवाला देवता माना गया है, जिसका स्थान ब्राह्मण कम होता गया, एवं इसके भूतपूर्व अधिराज्य में से केवल एवं पौराणिक ग्रंथों में क्रमशः प्रजापति एवं विष्णु के द्वारा
जल पर ही इसका प्रभुत्व रह गया। इसी कारण उत्तरलिया गया है (ब्रह्मन् , विष्णु एवं प्रजापति देखिये)।
कालीन साहित्य में यह केवल समुद्र की देवता बन यही कारण है कि, ब्राह्मण एवं पौराणिक ग्रंथों में बराह गया। को क्रमशः प्रजापति एवं विष्णु का अवतार कहा गया है।
वतार कहा गया है। स्वरूपवर्णन--वरुण का मुख (अनीकम् ) अग्नि के
समान तेजस्वी है, एवं सूर्य के सहस्र नेत्रों से यह मानव२. युधिष्ठिर की सभा का एक ऋषि (म. स.
जाति का अवलोकन करता है (ऋ. ७.३४; ८८)। इसी ४.१५)।
कारण इसे 'सूर्यनेत्री' कहा गया है (ऋ. ७.६६)। मित्र वराहक--धृतराष्ट्रकुलोत्पन्न एक नाग, जो जनमेजय
एवं त्वष्ट के भाँति यह सुंदर हाथोंवाला (सुपाणि) है, के सर्पसत्र में दग्ध हुआ था (म. आ. ५२. १८)।
एवं एक स्वर्णद्रापि एवं द्युतिमत् वस्त्र यह परिधान करता वराहक--कुवेरसभा में उपस्थित एक यक्ष (म. स. है (ऋ. १०.२५)। इसका रथ सूर्य के समान् द्युतिमान् १०.१६)।
है, जिसमें स्तंभों के स्थान पर नध्रियाँ लगी है (ऋ. १. वराहाश्व-एक दानव (म. शां. २२०.५२)। १२२)।
वरिष्ठ-चाक्षुष मनु के पुत्रों में से एक (म. अनु. शतपथ ब्राहाण में इसे श्वेतवर्ण, गंजा एवं पीले नेत्रोंवाला १८.२०)। इसने गृत्समद ऋषि को साम के अशुद्ध पाठन | वृद्ध पुरुष कहा गया है (श. ब्रा. १३.३.६)।
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