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वरुण
प्राचीन चरित्रकोश
वरुण
निवासस्थान--मित्र एवं वरुण का गृह स्वर्ण निर्मित है, असुर वरुण--ऋग्वेद में मित्र एवं वरुण को अनेक एवं वह द्युलोक में स्थित है (ऋ. ५.६७)। इसके गृह में बार असुर (रहस्यमय व्यक्ति) कहा गया है (ऋ. १. सहस्त्रद्वार है, जहाँ यह सहस्त्र स्तंभोवाले आसन (सदस)| ३५.७, २.७.१०, ७.६५.२, ८.४२.१)। इसे एवं मित्र पर बैठता है (ऋ. ५.६८)। अपने इस भवन में को.रहस्यमय एवं उदात्त ( असुरा आर्या) भी कहा गया (परत्यासु) बैठ कर यह समस्त सृष्टि को अवलोकन है (ऋ. ७.६५)। ऋग्वेद में अन्यत्र इसके माया (गुह्यकरता है (ऋ. १.२५)।
शक्ति) का निर्देश प्राप्त है, एवं अपनी इस माया के सर्वदर्शी सूर्य अपने गृह से उदित हो कर, मनुष्यों के द्वारा सूर्यरूपी परिमापनयंत्र के द्वारा यह पृथ्वी को कृत्यों की सूचना मित्र एवं वरुणों को देता है (ऋ. ७. नापता है, ऐसा भी कहा गया है (ऋ. ५.८५)। यहाँ ६०)।
'असुर' एवं गुह्यशक्ति' ये दोनों शब्द गौरव के आशय गुप्तचर--वरुण के गुप्तचर (पशः) द्युलोक से उतर |
में प्रयुक्त किये गये हैं। कर संसार में भ्रमण करते हैं, एवं सहस्त्र नेत्रों से युक्त | वरुण-देवता का अन्वयार्थ--डॉ. रा. ना. दांडेकर जी होने के कारण, संपूर्ण संसार का निरीक्षण करते है (अ. के अनुसार, समस्त सृष्टि का संचालन करने की वे. ४.१६ ) । संभवतः आकाश में स्थित तारों को ही | 'यात्त्वामक' अथवा आसुरी शक्ति वरुण के पास थी, वरुण के दूत कहा गया है । ऋग्वेद में सूर्य को ही वरुण | जिस कारण इसे वैदिक साहित्य में असुर (असु नामक का स्वर्ण पंखोंवाला दूत कहा गया है (ऋ. १०.१२३)। शक्ति से युक्त) कहा गया है। इसी आसुरी माया के ईरान के 'मिथ' देवता के गुप्तचर भी 'स्पश्' नाम से | कारण, वरुण निसर्ग, देव एवं मनुष्यों का सम्राट् बन गया प्रसिद्ध हैं, जो वैदिक साहित्य में निर्दिष्ट मित्र एवं वरुणों था, एवं इसी अपूर्व शक्ति के कारण, वैदिक साहित्य में के गुप्तचरों से काफी मिलते जुलते हैं ।
वरुण को यक्षिन् (जादुगर) कहा गया है (ऋ. ७. सृष्टि का राजा--अकेले एवं मित्र के साथ वरुण को ८८.६)। देवों का, मनुष्यों का तथा समस्त संसार का राजा
वरुण की इस आसुरी शक्ति का उद्गम निम्नप्रकार बता(सम्राट् ) कहा गया है (ऋ. १.१३२, ५.८५)। ऋग्वेद में
या जा सकता है । वैदिक आर्यों ने जब देखा कि, इस सृष्टि यह उपाधि प्रायः इंद्र को प्रदान की जाती है, किन्तु वह
का जीवनक्रम प्रचंड हो कर भी अत्यंत नियमबद्ध एवं वरुण को इंद्र से भी अधिक बार प्रदान की गयी है।
व्यवस्थापूर्ण है, तब इस नियमबद्ध सृष्टि का संचालन ऋग्वेद में अन्यत्र इसके सार्वभौम सत्ता (क्षत्र) का, एवं
करनेवाले देवता की कल्पना उनके मन में उत्स्फूर्त एक शासक के नाते (क्षत्रिय) इसका अनेक बार निर्देश
हो गयी। प्राप्त है।
वरुण को प्रकृति के नियमों का महान् अधिपति कहा- आकाश में प्रति दिन प्रकाशित हो कर अस्तंगत गया है । इसने द्युलोक एवं पृथ्वी की स्थापना की, एवं | होनेवाले सूर्य चंद्र एवं तारका; अपने नियत मार्ग से बहने. इसके विधान के कारण ही लोक एवं पृथ्वी अलग अलग । वाली नदियाँ; एवं अपने नियत क्रम से बदलनेवाली हैं (ऋ. ६.७०, ८.४२)। इसने ही अग्नि की जल में, ऋतु को देख कर, इस सारे विश्वचक्र का संचालन करनेसूर्य की आकाश में, एवं सोम की पर्वतों पर स्थापना की |
वाली कोई न कोई अदृश्य देवता होनी ही चाहिए, ऐसी (ऋ. ५.८५)। वायुमंडळ में भ्रमण करनेवाला वायु
धारणा उनके मन में उत्पन्न हुई। इसी अदृश्य शक्ति वरुण का ही श्वास है (ऋ. ७.८७)।
अथवा देवता को वैदिक आर्यों के द्वारा वरुण कहा गया, पृथ्वी पर रात्रि एवं दिनों की स्थापना वरुण के द्वारा | एवं यह अपने दैवी शक्ति (माया) के द्वारा सृष्टि का ही की गई है, एवं उनका नियमन भी यही करता है। संचालन करता है, यह कल्पना प्रसृत हो गई। रात्रि में दिखाई देनेवाले चंद्र एवं तारका इसके कारण ही वैदिक साहित्य के अनुसार, वरुण अपने सृष्टिसंचालन प्रकाशित होते है (ऋ. १.२४)। इस प्रकार जहाँ मित्र | का यह कार्य सृष्टि के सारे चर एवं अचर वस्तुमात्रों केवल दिन के दिव्य प्रकाश का अधिपति है, वहाँ वरुण | को बंधन में रख कर करता है। अपनी 'माया' के को रात एवं दिन दोनों के ही प्रकाश का अधिपति माना | कारण वरुण ने अनेक पाश निर्माण किये हैं, जिनकी गया है।
सहाय्यता से पृथ्वी के समस्त नैसर्गिक शक्तियों को यह
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