SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 473
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पृथु प्राचीन चरित्रकोश पृथु मला हा किया। निन्यानवे यज्ञ पूरे ही जाने के बाद इन्द्र को शंका | राजनीति की दृष्टि से इस प्रतिज्ञा में नियतधर्म एवं हुयी कि, कहीं यह मेरा इन्द्रासन न छीन ले। अतएव | शाश्वतधर्म के पालन पर जो जोर दिया गया है, वह उसने यज्ञ के अश्व को चरा लिया। यही नहीं, कापालिक | अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। राज्य में विभिन्न धर्मों के वेष धारण कर इन्द्र ने पृथु का यज्ञ न होने दिया। इस | माननेवाले व्यक्ति होते हैं, पर राजा उन सबको एकसूत्र पर क्रोधित होकर पृथु इन्द्र का वध करने को उद्यत हुआ। में बाँधकर जिस धर्म के द्वारा राज्य करता है वह समन्वयदोनों में काफी संघर्ष न हो, इस भय से बृहस्पति तथा | वादी, समतापूर्ण, सर्वजनहिताय होता है। इसी को विष्णु ने मध्यस्थ होकर, दोनों में मैत्री की स्थापना कराई।। इस प्रतिज्ञा में 'नियत' एवं शाश्वत 'धर्म' कहा गया है। 'भागवत के अनुसार अत्रि ऋषि की सहायता से पृथु-पुत्र | यह शाश्वत धर्म के पालन की कल्पना प्राचीन भारतीय विजिताश्व ने इन्द्र को पराजित किया (भा. ४.१९) संस्कृति की देन है। पृथु वैन्य की यह प्रतिज्ञा ___ इसने महर्षियों को आश्वासन दिया, 'मैं धर्म के | इग्लैण्ड आदि की राज्य-प्रतिज्ञा से काफ़ी मिलती है। साथ राज्य करूँगा । आप मेरी सहायता कीजिये। अन्तर केवल इतना है, कि वहाँ की प्रतिज्ञा किसी विशेष महर्षियों ने इस पर 'तथास्तु' कहा। तत्पश्चात् शुक्र धर्म प्रणाली में ही आबद्ध है, पर पृथु द्वारा ग्रहण की गयी इसका पुरोहित बना, एवं निम्नलिखित ऋषि इसके | प्रातज्ञा आखल मानव-धम का ही राजधम मानकर उसे अष्टमंत्री बनेः- वालखिल्य-सारस्वत्य, गर्ग-सांवत्सर, | हा ही प्रतिस्थापित करते की बात कहती है। अत्रि-वेदकारक, नारद- इतिहास, सूत, मागध, बंदि कालिदास के रघुवंश में प्राप्त रघु राजा की प्रशस्ति में (म. शां. ५९. ११६ ११८, १३१४,)। पुरोहित, भी, 'प्रकृतिरंजन,' प्रजा का 'विनयाधान' एवं सारस्वत्य, सांवत्सर, वेदकारक, इतिहास, और राजा ये | | 'पोषण ' आदि शब्दों द्वारा यही कल्पना दोहरायी, छः नाम मिलते है। बाकी दो नाम का निर्देश नहीं है । | गयी है। सूत-मागध ये बंदिजन अलग है । महाभारत के अनुसार, पृथु के अश्वमेध यज्ञ में अत्रि सम्भव है मध्ययुगीन काल में, महाराष्ट्र के छत्रपति | | ऋषि ने इसे 'प्रथमनृप' 'विधाता,''इंद्र' और 'प्रजापति' शिवाजी ने अष्टप्रधान की शासनव्यवस्था यही से अपनायी कहकर इसका गौरवगान किया। यह गौतम को असहनीय था अतएव उसने अत्रि ऋषि से वाद-विवाद किया। इस पृथु की राजप्रतिज्ञा-राज्याधिकार प्राप्त करने के | वाद-विवाद में सनत्कुमार ने अत्रि का पक्ष लेकर उसका पूर्व, ऋषियों ने पृथु वैन्य से निम्नलिखित शपथ ग्रहण करने समर्थन किया। तत्पश्चात् पृथु ने अत्रि को बहुत सा धन को कहा देकर उसका सत्कार किया (म. व..१८३)। . “नियतो यत्र धर्मो वै, तमशङ्कः समाचर । पृथु की राजपद्धति प्रजा के लिए अत्यधिक सुखकारी - प्रियाप्रिये परित्यज्य, समः सर्वेषु जन्तुषु ॥ | सिद्ध हुयीं। इसकी राजधानी यमुना नदी के तट पर थी। कामक्रौधौ च लोभं च, मानं चोत्सृज्य दूरतः॥ | सृत एवं मागध नामक स्तुतिपाठक जाति की उत्पत्ति इसी यश्च धर्मात्प्रविचलेल्लोके, कश्चन मानवः ।। के राज्यकाल में हुयी। उनमें से सूतों को इसने अनूप देश निग्राह्यस्ते स बाहुभ्यां, शश्वद्धर्ममवेक्षतः। | एवं मागधों को मगध एवं कलिंग देश पुरस्कार के रूप प्रतिज्ञा चाधिरोहस्व, मनसा कर्मणा गिरा ॥ में प्रदान किये (वायु. ६२.१४७; ब्रह्मांड २.३६.१७२, प्रालयिष्याम्यहं भौम, ब्रह्म इत्येव चासकृत् "। ब्रह्म. ४.६७; पद्म भू. १६.२८; अग्नि. १८.८५; वा. रा. [ मैं नियत-धर्म को निर्भयता के साथ आचरण बा. ३५.५-३५, कूर्म. पू. १.६; शिव. वाय. ५६.३०में लाऊँगा । अपनी रुचि तथा अभिरुचि को महत्त्व न ५६.३०-३१)। देकर समस्त प्राणियों के साथ समता का व्यवहार करूँगा। काफी समय तक राज्य करने के उपरांत पृथु को वन में, काम, क्रोध, लोभ और मान को छोड़कर धर्मच्युत | में जाने की इच्छा हुयी। और यह अपनी पत्नी अर्चि व्यक्तियों को शाश्वत धर्म के अनुसार दण्ड दूँगा। को साथ लेकर वन गया। वन में इसकी मृत्यु हो गयी ___ मैं 'मनसा वाचा कर्मणा ' बार बार प्रतिज्ञा करता हूँ | और इसके साथ इसकी पत्नी भी सती हो गयी (भा. कि प्रजाजन को भौमब्रह्म समझकर उसका पालन करूँगा | ४.२३)। (म. शां. ५९. १०९-११६)।] | पुत्र-भागवत के अनुसार पृथु को कुल पाँच पुत्र थे, हो।
SR No.016121
Book TitleBharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Shastri Chitrav
PublisherBharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
Publication Year1964
Total Pages1228
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy