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प्राचीन चरित्रकोश
निमि 'विदेह'
निमि 'विदेह' - अयोध्यापति इक्ष्वाकु राजा का बारहवाँ पुत्र, एवं 'विदेह' देश तथा राजवंश का पहला राजा ( वा. रा. उ. ५५; म. स. ८.९ ) । यह एवं इसका पुरोहित वसिष्ठ के दरम्यान हुए झगडे में इन दोनों ने परस्पर को विदेह ( देहरहित ) बनने का शाप दिया था। उस विदेहत्व की अवस्था के कारण, इसे एवं इसके राजवंश को 'विदेह नाम प्राप्त हुआ (मत्स्य ६१.२२-२६ पद्म. पा. २२ २४-३७१ वायु ८९.४ ) । इसके नाम के लिये, 'नेमि' पाठभेद भी उपलब्ध है।
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इसका पिता इक्ष्वाकु मध्यदेश ( आधुनिक उत्तर प्रदेश ) का राजा था। इक्ष्वाकु के पुत्रों में विकुक्षि शशाद एवं निमि, ये दो प्रमुख थे। उनमे से विकुक्षि इक्ष्वाकु के पश्चात् अयोध्या का राजा बना, एवं उसने सुविख्यात इक्ष्वाकुवंश की स्थापना की निमि को विदेह का राज्य मिला, एवं इसने विदेह राजवंश की स्थापना की।.
गौतम ऋषि के आश्रम के पास, निमि ने इंद्र के अमरावती के समान सुंदर एवं समृद्ध नगरी की स्थापना की थी । उस नगरी का नाम 'वैजयंत' या 'जयंत' था। यह नगरी दक्षिण दंडकारण्य प्रदेश में थी, एवं रामायण काल में, वहाँ तिमिध्वन नामक राजा राज्य करता था (बा. रा. अयो. ९.१२) । ' जयंत' नगरी निश्चितरूप मैं कहाँ बसी थी, यह कहना मुश्किल है। डॉ. भांडारकर के मत में, आधुनिक विजयदुर्ग ही प्राचीन जयंतनगरी होगी | श्री. नंदलाल दे के मत में आधुनिक वनवासी शहर की जगह जयंतनगरी बसी हुयी थीं ।
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निमि की राजधानी 'मिथिला' नामक नगरी में थी उस नगरी का मिथिला नाम इसके पुत्र 'मिथि जनक के नाम से दिया गया था ( वायु ८९६१-२ ब्रह्मांड. २. ६४.१-२ ) ।
निमि 'विदेह'
वसिष्ठ के इस कहने पर, निमि चुपचाप बैठ गया। उस मौनता से वसिष्ठ की कल्पना हुयी कि, यश पाँचसी वर्षों तक रुकाने की अपनी सूचना निमि ने मान्य की है। इस कारण, वह इंद्र का यज्ञ करने चला गया ।
इंद्र का यज्ञ समाप्त करने के बाद, वसिष्ठ निमि के घर वापस आया। वहाँ उसने देखा कि राजा ने उसके कहने को न मान कर पहले ही यज्ञ शुरू कर दिया है, एवं गौतम ऋषिको मुख्य बनाया है। फिर क्रुद्ध हो कर वसिष्ठ ने पर्येक पर सोये हुये निमि को शाप दिया, 'अपने देह से तुम्हारा वियोग हो कर, तुम विदेह बनोगे । जागते ही इसे वसिष्ठ के शाप का वृत्तांत विदित हुआ। फिर निद्रित अवस्था में शाप देनेवाले दुष्ट बलिष्ठ गुरु से यह संतप्त हुआ, एवं इसने भी उसे वही शाप दिया ( विष्णु. ४.५.१ - ५ भा. ९.१३.१ - ६; वा. रा. उ. ५५-५७) ।
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एक बार, निमि ने सहस वर्षों तक चलनेवाले एक महान् वश का आयोजन किया। उस यश का होता (प्रमुख आचार्य) बनने के लिये इसने बड़े सम्मान से अपने कुलगुरु वसिष्ठ को निमंत्रण दिया । उस समय वसिष्ठ और कोई यश में व्यस्त था। उसने इससे कहा, 'पाँचों वर्षों तक चलनेवाले एक यश के कार्य में, मैं अभी व्यस्त हूँ। इसलिये वह यज्ञ समाप्त होने तक तुम ठहर जाओ। उस यज्ञ समाप्त होते ही, मैं तुम्हारे यज्ञ का ऋत्विज बन जाऊँगा ।
प्रा. च. ४७ ]
पद्म पुराण में ' वसिष्ठशाप' की यही कथा कुछ अलग ढंग से दी गयी है। अपने त्रियों के साथ, निमि द्यूत खेल रहा था । इतने में वसिष्ठ ऋषि यकायक वहाँ आ गया । द्यूत-क्रीडा में निमग्न रहने के कारण, निमि ने उसे उत्थापन आदि नही दिया । उस अपमान के कारण, वसिष्ठ ने इसे 'विदेह' बनने का शाप दिया (पद्म. पा. ५.२२ ) ।
वसिष्ठ के शाप के कारण, निमि का शरीर अचेतन हों कर गिर पड़ा, एवं इसके प्राण इधर-उधर भटकने लगे इसका अचेतन शरीर सुगंधि तैलादि के उपयोग से स्वच्छ एवं ताज़ा रख दिया गया । निमि का यज्ञ समाप्त होने पर, यज्ञ के हविर्भाग को स्वीकार करने देवतागण उपस्थित हुये। फिर उन्होंने निमि से कुछ आशीर्वाद माँगने के लिये कहा। निमि ने कहा, 'शरीर एवं प्राण के वियोग के समान दुखदायी घटना दुनिया में और नहीं है एक बार 'विदेह' होने के बाद, मैं पुनः शरीरग्रहण करना नहीं चाहता । दुनिया हर व्यक्ति की आँखो में मेरी स्थापना हो जाये, जिससे मानवी शरीर से मैं कभी भी जुदा न हो सकूँ । निमि की इस प्रार्थना ' के अनुसार, देवों ने मानवी आँखों में इसे जगह दिलायी। आँखों में स्थित निमि के कारण, उस दिन से मानवों की आँखे झपाने लगी एवं आँख पाने की उस क्रिया को 'निमिष कहने लगे ( विष्णुधर्म, १.११७) ।.
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मत्स्य एवं पद्मपुराण के मत में, 'विदेह अवस्था के शाप से मुक्ति पाने के लिये, निमि एवं वसिष्ठ ब्रह्माजी के पास गये । ब्रह्माजी ने वर प्रदान कर, निमि को मानवों
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