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________________ व्यास प्राचीन चरित्रकोश व्यास यन । इनमें से शाकल, बाप्कल एवं माण्डूकायन इन परंपरा का विद्यावंश निम्नप्रकार थाः--जैमिनि-सुमंतुशाखा प्रवर्तकों का निर्देश व्यास की वैदिक शिष्य- सुत्वत् (सुन्वत् )-सुकर्मन् । परंपरा में प्राप्त है । किन्तु आश्वलायन एवं शांखायन (अ) सुकर्मन्-शाखा--सुकर्मन् ने ' सामवेदसंहिता' शाखाओं के प्रवर्तक आचार्य कौन थे, यह कहना मुष्किल | के एक हजार संस्करण बनायें, एवं उनमें से पाचसा है। इन दोनों शाखाओं का निर्देश अग्नि में प्राप्त है | संहिता पौष्यजि नामक आचार्य को, एवं उर्वरीत पाँचसौ (अग्नि. २७१.२)। हिरण्यनाभ कौशल्य (कौशिक्य) राजा को प्रदान की। उपर्युक्त शाखाओं में से शांखायन के अतिरिक्त बाकी | उनमें से पौष्यं जि एवं हिरण्यनाभ के शिष्य क्रमशः सारी शाखाएँ शाकल्य के शिष्यों के द्वारा शुरू की गयी । 'उदीच्य सामग' एवं 'प्राच्य सामग' नाम से सुविख्यात थीं, जिस कारण वे 'शाकल' सामूहिक नाम से प्रसिद्ध हुए। विष्णु में इन दोनों सामशिष्यों की संख्या प्रत्येक की हैं (वेदार्थदीपिका प्रस्तावना)। पंद्रह बतायी गयी है। वर्तमानकाल में उपलब्ध सायण भाष्य से सहित | हिरण्यनाभ के शिष्यों में कृत (कृति) प्रमुख था, जो ऋक्संहिता आश्वलायन शाखान्तर्गत मानी जाती है। एक प्रमुख शाखाप्रवर्तक आचार्य माना जाता है । 'चरणव्यूह' ग्रंथ के महिधर-भाष्य से यही सिद्ध होता (आ) कृत-शाखा--कृत के कुल चौबीस शिष्य थे, है। सत्यव्रत सामाश्रमी के ऐतरयालोचन म भा यहा जिनकी नामावलि वायु एवं ब्रह्मांड में निम्नप्रकार दी गयी सिद्धान्त प्रस्थापित किया गया है। है:- १. राडि (राड); २. राडवीय (महावीर्य);(२) व्यास की यजुःशिष्यपरंपरा--व्यास की यजुः- ३. पंचम; ४. वाहन; ५. तलक (तालक); ६. मांडुक शिष्यपरंपरा का प्रमुख शिष्य वैशंपायन था। वैशंपायन (पांडक); ७. कालिक, ८. राजिक, ९. गौतम के कुल ८६ शिष्य थे, जिनमें याज्ञवल्क्य वाजसनेय प्रमुख | १०. अजवस्ति, ११. सोमराजायन (सोमराज); था। आगे चल कर, याज्ञवल्क्य ने अपनी स्वतंत्र यजुर्वेद | १२. पुष्टि (पृष्ठन); १३. परिकृष्टः १४. उलूखलक; शाखा प्रस्थापित की, एवं वैशंपायन की ८५ शिष्य बाकी | १५. यवियस; १६. शालि (वैशाल); १७. अंगुलीय; रहे। ये सारे शिष्य 'तैत्तिरीय ' अथवा 'परकाध्वर्य' | १८. कौशिक; १९. शालिमंजरिपाक (सालिजीमंजरिसत्य); सामूहिक से सुविख्यात हैं। | २०. शधीय (कापीय); २१. कानिनि (कानिक), २२. पाराशर्य ( पराशर); २३. धर्मात्मन् ; २४. वाँ नाम (अ) वैशंपायन शाखा--इस शाखा में उदिच्य' प्राम नहीं है। मध्यदेश एवं प्राच्य ऐसी तीन उपशाखाएँ प्रमुख थीं, जिनके प्रमुख आचार्य क्रमशः श्यामाय नि, आसुरी एवं | | (इ) पौष्यंजि-शाखा-पौष्यंजि के निम्नलिखित शिष्य 'आलम्बि थे। प्रमुख थे:- १. लौगाक्षि (लौकाक्षि, लौकाक्षिन् ); २. (आ) याज्ञयल्क्य शाखा--इस शाखा में अंतर्गत | कुशुभिः ३. कुशीदि (कुसीद, कुसीदि); ४. लांगलि याज्ञवल्क्य के शिष्य वाजिन' अथवा 'वाजसनेय' (मांगलि), जिसे ब्रह्मांड एवं वायु में 'शालिहोत्र' उपाधि सामहिक नाम से सविख्यात थे। याज्ञवल्क्य के पंदट प्रदान की गयी है; ५. कुल्य; एवं ६. कुक्ष । शाखाप्रवर्तक शिष्यों का निर्देश वायु एवं ब्रह्मांड में प्राप्त (ई) लांगलि-शाखा-लांगलि के निम्नलिखित छः है, जिनमें से ब्रह्मांड में प्राप्त नामावली नीचे दी गयी शिष्य थे, जो 'लांगल' अथवा 'लांगलि' सामूहिक नाम से है:--१. कण्य; २. बौधेय; ३. मध्यंदिन; ४. सापत्यः प्रसिद्ध थे:-१. हालिनी (भालुकि); २. ज्यामहानि ५. वैधेय; ६. आद्ध; ७. बौद्धक; ८. तापनीय; ९. वास; | (कामहानि); ३. जैमिनि; ४. लोमगायनि (लोमगायिन् ); • १०. जाबाल; ११. केवल; १२. आवटिन् । १३. पुण्ड्र, ५. कण्डु (कण्ड); ६. कोहल (कोलह)। १४. वैण; १५. पराशर (ब्रह्मांड. २.३५.८-३० याज्ञ- (उ) लौगाक्षि-शाखा-लौगाक्षि के निम्नलिखित छ: वल्क्य वाजसनेय देखिये)। शिष्य थे:-१. राणायनीय (नाडायनीय); २. सहतंडि(३) व्यास की सामशिष्यपरंपरा--व्यास की साम- पुत्र ( सहितडिपुत्र); ३. वैन (मूलचारिन् ); ४. सकोतिशिष्यपरंपरा का प्रमुख शिष्य जैमिनि था, जिसके पुत्रपौत्रों । पुत्र (सकतिपुत्र); ५. सुसहस् (सहसात्यपुत्र); ६. ने सामशिष्यपरंपरा आगे चलायी। जैमिनि के सामशिष्य- | सुनामन् । ९२३
SR No.016121
Book TitleBharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Shastri Chitrav
PublisherBharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
Publication Year1964
Total Pages1228
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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