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हिरण्यकशिपु
। प्राचीन चरित्रकोश
हिरण्यकेशिन्
उसके गर्भ में स्थित बालक ने भी सुन लिया, जिस कारण | (१) प्रहलाद शाखा:--प्रह्लाद--विरोचन-गवेष्ठिन्, वह जन्म से पूर्व ही विष्णुभक्त बन गया।
कालनेमि, जंभ, बाष्कल, शंभु। " इप्त प्रकार हिरण्यकशिपु जैसे देवताविरोधी असुर के (अ) विरोचन शाखा:-विरोचन-बलि, बाण (सहस्त्रघर में ही. प्रहाद के रूप में एक सर्वश्रेष्ठ विष्णुभक्त का | बाह.) कुंभनाभ, गर्दभाक्ष, कुशि आदि। जन्म हुआ। आगे चल कर प्रह्लाद को शिक्षा देने के लिए (ब) गवेष्ठिन् शाखाः-गवेष्ठिन्–शंभ, निशुंभ, नियुक्त किये गये गुरु ने भी उसे विष्णुभक्ति के पाठ | विश्वकसेन। सिखाये।
(क) कालनेमि शाखा:--कालनेमि-ब्रह्मजित् , . हिरण्यकशिपु को यह ज्ञात होते ही, इसने प्रह्लाद की | क्षत्रजित् , देवान्तक, नरान्तक । विष्णभक्ति नष्ट करने के लिए हर तरह के प्रयत्न किये, (ड) जंभ शाखा:-जंभ-शतदुंदुभि, दक्ष, खण्ड। यही नहीं, प्रह्लाद का काफ़ी छल भी किया। किंतु प्रह्लाद (इ) बाप्कल शाखाः-बाष्कल-विराध, मनु, वृक्षायु, अपने विष्णुभक्ति पर अटल रहा (प्रह्लाद देखिये)। ।
कुशलीमुख। वध-एक बार यह अपने पुत्र प्रह्लाद की विष्णुभक्ति
(फ) शंभु शाखाः--शंभु--धनक, असिलोमन् , के संबंध में कटु आलोचना कर रहा था। उस समय पास
| नाबल, गोमुख, गवाक्ष, गोमत् । ही स्थित एक खंबे के ओर दृष्टिक्षेप कर, इसने बडी ही
२. हृद शाखा:--हृद--निसुंद, सुंद। व्यंजना से प्रह्लाद से कहा, 'सारे चराचर में भरा हुआ
(अ) निसुंद शाखा:--निसुंद--मूक, जो अर्जुन के तुम्हारा विष्णु इस खबे में भी होना चाहिये । तुम इसे
द्वारा मारा गया। बाहर आने के लिए क्यों नहीं कहते ?'
(ब) सुंद शाखा:--सुंद--मारीच, जो राम के द्वारा इतना कहते ही उक्त खंबे से श्रीविष्णु का रौद्र नृसिंहा
मारा गया। वतार प्रकट हुआ; एवं उन्होंने अपने नाखुनों से सायंकाल
(३) संहाद शाखा:-संहाद--निवातकवच । के समय इसका वध किया। नृसिंह स्वयं अर्धमनुष्य एव
(४) अनुहाद शाखा:-अनुवाद-वायु (सिनीवाली) अर्धपशु था। इस कारण, ब्रह्मा से प्राप्त अवध्यत्व के
--हलाहलगण। वरदान का भंग न करते हुए भी वह इसका वध कर सका।
(५) सिंहिका शाखा:--सिंहिका-सैहिकेय गण • पश्चात् प्रह्लाद के द्वारा प्रार्थना किये जाने पर, नृसिंह ने इसके सारे पूर्वपापों से इसे मुक्तता प्रदान की (तृसिंह
(ब्रह्मांड. ३.५.३३-४५, वायु. ६७.७०-८१; म. आ. देखिये )।
५९.१७-२०)। . . परिवार-इसकी निम्नलिखित तीन पत्नियाँ थी :-- |
२. एक दानव, जिसने एक अर्बुद वर्षों के लिए सारे १. जंभकन्या कयाध (भा. ६.१८.१२); २, उत्तानपाद
देवताओं का ऐश्वर्य शिव की कृपा से प्राप्त किया था। कन्या कल्याणी (पद्म. उ.२३८);३. कीर्ति (वा.रा. सु. २० ।
आगे चल कर इसने मेरुपर्वत को भी हिलाया था (म. २८)।
अनु. १४.७३-७४)। अपनी उपर्युक्त पत्नियों से इसे निम्नलिखित पुत्र उत्पन्न | हिरण्यकेशिन्--एक सुविख्यात आचार्य, जो कृष्ण हुए थे:-१. प्रह्लाद; २. संहाद; २. हाद; ४. अनुहाद | यजुर्वेद के तैत्तिरीय शाखान्तर्गत हिरण्यकेशिन् नामक ५. शिबि६. बाष्कल (भा. ६.१८.१३; विष्णु. १.१७. | शाखा का सूत्रकर्ता माना जाता है। इसके द्वारा प्रणीत १४०; है. वं. १.३; वायु. ६७.७०; म. आ. ५९.१८)। शाखा खाण्डवीय शाखा का पोटविभाग माना जाता है।
अपने इन पुत्रों के अतिरिक्त इसकी निम्नलिखित | इसका सही नाम सत्याषाढ था, जिस कारण इसके कन्याएँ भी थी:-१. सिंहिका (भा. ६.१८.१३); | द्वारा प्रणीत श्रौतसूत्र 'सत्याषाढ श्रौतसूत्र' नाम से प्रसिद्ध २. हरिणी अथवा रोहिणी (म. व. २११.१८); | है। आद्य कल्प में यह ब्रह्मदत्त नाम से सुविख्यात था ३. भृगुपत्नी दिव्या (वायु. ६५.७३, ६७.६७, ब्रह्मांड. | (महादेव कृत वैजयंती प्रस्तावना, १२-१४)। स्कंदोप३.१.७४; भृगु देखिये)।
पुराण के अनुसार, इसने सह्याद्रि के पूर्व में स्थित परशुराम वंश-इस के पुत्रों से आगेचल कर, विभिन्न दैत्यवंशों का | क्षेत्र में हरणकाशि नदी के तट पर कड़ी तपस्या की, निर्माण हुआ, जिनकी संक्षिप्त जानकारी निम्न प्रकार है:- | जिस कारण यह अनेकानेक सूत्रग्रंथों की रचना कर सका।