SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 569
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भरत 'दाशरथि' प्राचीन चरित्रकोश भरत 'दाशरथि पराजित किया, तथा दो नगरो की स्थापना की । एक का | बचपन में बड़े बड़े दानवों, राक्षसों तथा सिंहों का दमन नाम 'तक्षशिला' रख कर वहाँ का राज्याधिकारी तक्ष को | करने के कारण, कण्वाश्रम के ऋषियों ने इसका नाम नियुक्त किया, तथा दूसरी नगरी का नाम 'पुष्कलावत' । सर्वदमन रक्खा था (म. आ. ६८.८)। इसे 'दमन' रख कर वहाँ का राज्य पुष्कल को सौंपा। इस युद्ध को | नामांतर भी प्राप्त था । शतपथ ब्राह्मण में इसे 'सौद्युम्नि' जीतने तथा राज्यादि की स्थापना में भरत को पाँच वर्ष कहा गया है (श. ब्रा. १३.५.४.१०)। कण्व ऋषि के लगे। बाद को यह अयोध्या वापस आया (वा. रा. उ. आश्रम में शकुन्तला रहती थी, उस समय सुविख्यात १०१)। पूरुवंशीय राजा दुष्यन्त ने उससे गान्धर्व विवाह किया - अन्त में इस महापुरुष ने, राम के उपरांत अयोध्या से था, एवं उसी विवाह से भरत का जन्म हुआ। जब भरत डेढ कोस की दूरी पर स्थित 'गोप्रतारतीर्थ' में देहत्याग | तीन साल का हो गया, तब इसके युवराजाभिषेक के लिए किया (वा. रा. १०९.११; ११०.२३)। कण्व ऋषि ने शकुन्तला को पुत्र तथा अपने कुछ शिष्यों तुलसीरामायण में-रामचरित-मानस में तुलसीदास के साथ प्रतिष्ठान के लिए बिदा किया। जी ने भरत का समस्त रूप ___ दुष्यन्त ने इसे तथा शकुन्तला को न पहचान कर पुलह गात हिय सिय रघुबीरू, इसका तिरस्कार किया, एवं शकुन्तला को पत्नीरूप में जीह नामु जप लोचन नीरू, स्वीकार करने के लिए राजी न हुआ । शकुन्तला ने बहुत में प्रकट कर दिया है। 'मानस' में भरत का चरित्र कुछ कहा, किन्तु कुछ फायदा न हुआ। ऐसी स्थिति देखकर सभी से उज्ज्वल कहा गया है। आकाशवाणी हुयी, 'शकुन्तला तुम्हारी स्त्री एवं भरत 'लखन राम सिय कानन बसहीं, तुम्हारा पुत्र है, इन्हें स्वीकार करो'। आकाशवाणी की भरत भवन बसि तपि तनु कसहीं आज्ञा के अनुसार, दुष्यन्त ने भरत को पुत्र रूप में स्वीकार कोउ दिसि समुझि करत सब लोगू, कर, उसका युवराज्याभिषेक किया। सब बिधि भरत सराहन जोगू। राज्यपद प्राप्त होने पर भरत ने दीर्घतमस् मामतेय - तुलसी ने अपनी भक्तिभावना भरत के रूप में ही | ऋषि को अपना पुरोहित बनाकर गंगा नदी के तट पर प्रकट की है। भरत त्याग, तपस्या, कर्तव्य तथा प्रेम के | चौदह, एवं यमुना नदी के तीर पर तीन सौ अश्वमेध यज्ञ साक्षात् स्वरूप हैं। इसकी चारित्रिक एकनिष्ठा एवं | सम्पन्न कराये । इसी के साथ 'मष्णार' नामक यज्ञ नैतिकता के साथ कवि इतना अधिक एकात्म्य स्थापित कर्म कर सौ करोड सौ, कृष्णवर्णीय अलंकारो से विभूषित कर लेता है, कि स्वयं भरत की प्रेम निष्ठा कवि की हाथियों को दान में दिया (म. शां. २९.४०-४५)। आत्मकथा बन जाती है। ऐतरेय ब्राह्मण में, सौ करोड सौ गायें इसके द्वारा दान भरत का यह साधु चरित 'पउम चरिउ' (स्वयंभुव) देने का निर्देश है, एवं इसके अश्वमेधों की संख्या भी 'भरत-मिलाप' (ईश्वरदास), गीतावली (तुलसीदास), विभिन्न रूप में दी गयी है (ऐ. बा. ८.२३)। महाभारत 'साकेत' (मैथिलीशरण गुप्त), एवं 'साकेत-सन्त' में, इसके द्वारा सरस्वती नदी के तट पर तीन सौ अश्वमेध (बलदेवप्रसाद मिश्र) आदि प्रसिद्ध हिन्दी काव्यों में | यज्ञ करने का निर्देश प्राप्त है (म. द्रो. परि. १. क्र. ८. भी भारतीय संस्कृति के आदर्श प्रतीक के रूप में चित्रित | पंक्ति. १४४; शां. २९.४१)। किया गया है। पश्चात् अपने रथ को तैतीस सौ अश्व जोतकर इसने भरत दौःषन्ति--(सो. पूरु.) एक सुविख्यात पूरु- दिग्विजयसत्र का प्रारंभ किया । दिग्विजय कर, शक, म्लेच्छों वंशीय सम्राट, जो दुष्यन्त राजा का शकुन्तला से उत्पन्न | तथा दानवों आदि का नाश कर अनेकानेक देवस्त्रियों को पुत्र था (म. आ. ९०. ३३, ८९; १६; वायु. ४५ | कारागृह से मुक्ति दिलाई। इसने अपने राज्य का विस्तार ८६) । महाभारत में निर्दिष्ट सोलह श्रेष्ठ राजाओं में इसका उत्तर दिशा की ओर किया। सरस्वती नदी से लेकर निर्देश प्राप्त है (म. शां. २९.४०-४५) । इससे भरत | गंगा नदी के बीच का प्रदेश इसने अपने अधिकार में राजवंश की उत्पत्ति हुयी, एवं इसीसे शासित होने के कर लिया था। इसके पिता दुष्यन्त के समय इसके कारण इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा (म. आ. | राज्य की राजधानी प्रतिष्ठान थी, किन्तु आगे चल कर २.९६*)। | इसके राज्य की राजधानी का गौरव हस्तिनापुर को दिया ५४७
SR No.016121
Book TitleBharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Shastri Chitrav
PublisherBharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
Publication Year1964
Total Pages1228
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy