________________
भरत 'दाशरथि
प्राचीन चरित्रकोश
भरत 'दाशरथि
अभिमानिनी, स्वयं को भाग्यशालिनी समझनेवाली, में प्रवेश कर, अपना शरीर त्याग दूंगा'। इतना कहकर ऐश्वर्यलुब्ध सज्जन के समान दिखनेवाली, परन्तु दुर्जन, राम की पादुकाओं को लेकर यह वापस आया। दुष्ट, तथा दुर्बुद्धि, मेरी माता कैकेयी है'। भरत ने भरद्वाज । नन्दिग्राम में-अयोध्या आ कर पादुकाओं को लेकर, आश्रम में एक दिन निवास किया। उसके उपरांत भरद्वाज यह नन्दिग्राम में वनवासी की भाँति रह कर राज्य करने ने राम की पर्णकुटी की ओर जानेवाले यमुना तट का मार्ग लगा। इस प्रकार राज्यसंचालन करते समय छत्रसमझाकर आदरपूर्वक इसे बिदा किया (वा. रा. अयो. ९२)। चामर, उपहार सभी चीजें पादुकाओं को ही अर्पित की
भरद्वाज के द्वारा निर्देशित मार्ग पर चल कर यह जाती थी, तथा यह निमित्तमात्र बन कर राम की अमानत चित्रकूट पहुँचा । भरत के आने की सूचना मिलते ही समझ कर अयोध्या के राज्य का संचालन करता रहा। लक्ष्मण आग बबूला हो उठा; उसे पूर्ण विश्वास हुआ कि राम के वनवास के चौदह वर्षो तक नन्दिग्राम में रह कर भरत ससैन्य राम से युद्ध करने आ रहा है। किन्तु राम के यह राजकाज देखता रहा । अन्त में राम ने हनुमान् । अत्यधिक समझाने पर उसका वह संदेह दूर हुआ। के द्वारा अपने आने की सूचना भरत के पास भिजवायी।
राम से भेंट-भरत आ कर, अतिविह्वलता के साथ जिस समय हनुमान् आया, उसने देखा कि वल्कल राम से लिपट गया एवं अपने हृदय की समस्त आत्मग्लानि तथा कृष्णा जिन धारण करनेवाला, आश्रमवासी, कृश, को प्रकट करते हुए बार बार उससे माफी माँगने लगा। दान, जटाधारा, शरार का पवार इसने राम को घर की सारी परिस्थिति बतलाते हए आग्रह | पर जीनेवाला तपस्वी भरत भावनिमग्न बैठा है। .. किया कि वह अयोध्या चल गया इसे देखते ही हनुमान् ने सश्रद्ध भरत के पास आकर इसके साथ जाबालि तथा वसिष्ण आदिने भी बाबा राम के आगमन की सूचना इसे दी। हनुमान् द्वारा रामानिवेदन किया। किन्तु राम न माने । राम ने पिता के वचनों
| गमन की सूचना सुनकर भरत अत्यंत प्रसन्न हुआ, एवं को सत्य प्रमाणित करने के लिए कहा, 'मुझे पिता की
अनेकानेक पारितोषिक प्रदान कर इसने उसका आदरसत्कार । आन प्यारी है। मेरा कर्तव्य है कि मैं पिता की आज्ञा को ।
किया। दिये गये पारितोषिकों में सोलह सुन्दर स्त्रियों के . स्वीकार कर उनके पण की रक्षा करूं। इसलिए मैं न |
देने का भी उल्लेख प्राप्त है। . अयोध्या जाउँगा, और न राज्य सिंहासन ही स्वीकार बाद में, भरत तथा शत्रुघ्न ने उत्तम प्रकार से नगर का .. करूँगा'।
शंगार कर राम का स्वागत किया, तथा बडे समारोह से, राम की यह वाणी सुन कर इसने उनके आश्रम के राम का राज्याभिषेक कर, अपने पास अमानत के रूप में सामने सत्याग्रह करने की योजना बनायी । किन्तु राम ने | रक्खे हए अयोध्या के राज्य को राम को वापस दिया। कहा कि, यह क्षत्रियों का मार्ग न होकर ब्राह्मणों का मार्ग | राम ने राज्यभार की स्वीकार कर अपना युवराज लक्ष्मण है; यह तुम्हारे लिये अशोभनीय है। अन्त में भरत को को बनाने की इच्छा प्रकट की, क्यों कि, राम के उपरांत समझाते हुए राम ने कहा
ज्येष्ठ होने के कारण उसका ही नाम आता है। लेकिन " लक्ष्मीश्चन्द्रादपेयाद्वा हिमवान् वा हिमं त्यजेत् । लक्ष्मण के स्वीकार न करने पर, भरत का यौवराज्याभिषेक अतीयात् सागरो वेलां न प्रतिज्ञामहं पितुः॥ किया गया (वा. रा. यु. १२५-१२८; पद्म. पा. १-२)। कामादा तात लोभादा मात्रा तुभ्यमिदं कृतम् ।
___ युद्धप्रसंग--भरत के सम्पूर्ण जीवन में सम्भवतः एक न तन्मनसि कर्तव्यं वर्तितव्यं च मातृवत् ॥" बार ही युद्ध में भाग लेने का अवसर प्राप्त हुआ। राम
(वा. रा. अयो. ११२.१८-१९) के राज्यकाल में, भरत के कैकयाधिपति मामा के पास से अन्त में राम के अत्यधिक समझाये जाने पर इसने | राम को संदेश मिला, 'मैं गन्धवों से घिर गया हूँ तथा उनकी पादुकाओं को ले कर कहा, 'मैं इन पादुकाओं आपकी सहायता चाहता हूँ'। अतएव उसको गन्धवों से के नाम से चौदह वर्ष तक राज्य चलाऊँगा, तथा जिस | मुक्त करने के लिए राम ने इसके नेतृत्व में अपनी सेना प्रकार तुम वन में रह कर जटायें एवं वस्त्र धारण करते हो. भेजी थी। इस सेना में भरत के दो पुत्र तक्ष तथा पुष्कल उसी प्रकार मैं भी जीवन व्यतीत करूँगा, तथा फलफूलों | भी थे। को खा कर ही अपना जीवन निर्वाह करूँगा। यदि | भरत ने अपनी सेना के साथ जा कर सिन्धु के दोनों तुम चौदह वर्षों के उपरांत वापस न आये, तो मैं अग्नि | तटों पर स्थित उपजाउ प्रदेश में रहनेवाले गंधवा को