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विष्णु
प्राचीन चरित्रकोश
विष्णु
में विष्णु के अवतार के नाते सुविख्यात हुए (श. ब्रा. क्रुद्ध हुआ, एवं श्रीकृष्ण को शाप देने के लिए प्रवृत्त हुआ। १.८.१; ७.५१)।
इस समय कृष्ण ने उसे 'अनुगीता' के रूप में अध्यात्मउपनिषदों में- मैत्री उपनिषद् में, समस्त सृष्टि तत्त्वज्ञान कथन किया, एवं उत्तंक को अपना वहीं विराट धारण करनेवाले अन्नपरब्रह्म को भगवान् विष्णु कहा गया
स्वरूप दिखाया, जो भगवद्गीता कथन के समय उसने है। कठोपनिषद् में साधक के आध्यात्मिक साधना का |
अर्जुन को दिखाया था। किन्तु उस विराट स्वरूप को अनुअंतिम 'श्रेयस् ' विष्णु का परम पद बताया गया है।
गीता में 'विष्णु का सही स्वरूप' (वैष्णव रूप) कहा गया इन निर्देशों से प्रतीत होता है कि, उपनिषद काल में, | है, जिसे भगवद्गीता में 'वासुदेव का सही स्वरूप' कहा विष्णु इस सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ देवता माना जाने लगा था। गया था (म. आश्व, ५३-५५)। डॉ. भांडारकरजी के अनुसार, उपनिषदों में वर्णित | महाभारत में अन्यत्र युधिष्ठिर के द्वारा किये गये कृष्ण
परब्रह्मा की कल्पना वैदिक साहित्य में निर्दिष्ट विष्णु | स्तवन में कृष्ण को विष्णु का अवतार कहा गया है (म. के 'परमपद' की कल्पना से काफी मिलतीजुलती है । | शां. ४३)। महाभारत में बहुधा सर्वत्र विष्णु को इसी कल्पनासाधर्म्य के कारण, वैदिकोत्तर काल में विष्णु | 'परमात्मा' माना गया है, फिर भी विष्णुस्वरूपों में तत्त्वज्ञों के द्वारा पूजित एक सर्वमान्य देवता बन गया। से नारायण एवं वासुदेव-कृष्ण के निर्देश वहाँ अधिकरूप
गृह्यसूत्रों में--आगे चल कर, विष्णु भारतीयों के | में पाये जाते हैं। नित्यपूजन का देवता बन गया। आपस्तंब, हिरण्यकेशिन् , पारस्कर आदि आचार्यों के द्वारा प्रणीत विवाहविधि में,
विष्णु-उपासना के तीन स्त्रोत-जैसे पहले ही कहा सप्तपदी-समारोह के समय निम्नलिखित मंत्र वैदिक मंत्रो गया है, महाभारत में एवं उस ग्रंथ के उत्तरकाल में के साथ अत्यंत श्रद्धाभाव से पठन किया जाता है:
प्रचलित विष्णु-उपासना में, वैदिक विष्णु में वासुदेव
कृष्ण एवं नारायण ये दो देवता सम्मीलित किये गये विष्णुस्त्वां आनयतु।
है । विष्णु-उपासना में प्राप्त, वैदिक विष्णु के अतिरिक्त (पा. गृ. १.७.१)। अन्य दो स्त्रोतों की संक्षिप्त जानकारी निम्न दी गयी है:(इस जीवन में विष्णु सदैव तुम्हारा मार्गदर्शन करता (१वासुदेव कृष्ण उपासना-वासुदेव उपासना का । रहे)।
सर्वाधिक प्राचीन निर्देश पतंजलि के व्याकरणमहामहाभारत में--इस प्रकार विष्णु देवता का माहात्म्य भाष्य में प्राप्त है, जहाँ वासुदेव को एक उपासनीय बढ़ते बढ़ते, महाभारतकाल में यह समस्त सृष्टि का नियन्ता देवता कहा गया है (महा. ४.३.९८ ) । इससे प्रतीत एवं शास्ता देवता माना जाने लगा। महाभारत में प्राप्त होता है की, पाणिनि के काल में वासुदेव की उपासना ब्रह्मदेव-परमेश्वर संवाद में, ब्रह्मा के द्वारा 'परमेश्वर' की जाती थी। को नारायण, विष्णु एवं वासुदेव आदि नामों से संबोधित
राजपुताना में स्थित घोसुंडि ग्राम में प्राप्त २०० ई. किया गया है। इससे प्रतीत होता है कि, महाभारतकाल
पू. के शिलालेख में वासुदेव एवं संकर्षण की उपासना का में ये तीनों देवता एकरूप हो कर, सम्मिलित स्वरूप में
निर्देश प्राप्त है। बेसनगर ग्राम में प्राप्त हेलिओदोरस इन तीनों की उपासना प्रारंभ हुई थी (म. भी.६१.६२)। के २०० ई.प्र. के शिलालेख में भी वासुदेव की उपासना
महाभारत में प्राप्त 'अनुगीता' में वासुदेव कृष्ण एवं प्रीत्यर्थ एक गरुडध्वज की स्थापना करने का निर्देश प्राप्त श्रीविष्ण का साधर्म्य स्पष्टरूप से प्रतीत होता है। भगवद्- है. जहाँ उसने स्वयं को भागवत कहा है। इससे प्रतीत गीता तक के समस्त वैष्णव साहित्य में एक ही एक 'वासुदेव होता है कि, पूर्व मालव देश में २०० ई. पू. में वासुदेव कृष्ण' की उपासना प्रतिपादन की गयी है, एवं वहाँ कहीं की देवता मान कर पूजा की जाती थी, एवं उसके भी विष्णु का निर्देश प्राप्त नहीं है, जो सर्वप्रथम ही अनुगीता उपासकों को भागवत कहा जाता था। हेलिओदोरस में पाया जाता है।
स्वयं तक्षशिला का युनानी राजदूत था, जिससे प्रतीत भारतीय-युद्ध के पश्चात् , द्वारका आते हुए भगवान्। होता है कि, भागवतधर्म का प्रचार उत्तरी-पश्चिम श्रीकृष्ण की भेंट भृगुवंशीय उत्तंक ऋषि से हुई । भारतीय प्रदेश में रहनेवाले युनानी लोगों में भी प्रचलित था। युद्ध के संहारसत्र की वार्ता सुन कर उत्तक ऋषि अत्यंत इसी प्रकार नानाघाट में प्राप्त ई. स. १. ली शताब्दी
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