SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 903
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विष्णु प्राचीन चरित्रकोश विष्णु ८.७७.१०)। इन्हीं अवतार-कल्पनाओं का विकास आगे | अथर्ववेद में यज्ञ को उष्णता प्रदान करने के लिए चल कर ब्राह्मण ग्रंथों में किया हुआ प्रतीत होता है। विष्णु का स्तवन किया गया है। ब्राहाणों में विष्णु के तीन अवंध्यता का देवता-डॉ. दांडेकरजी के अनुसार, पगों का प्रारंभ पृथ्वी से होकर वे द्युलोक में समाप्त होते ऋग्वेद में निर्दिष्ट विष्णु अवंध्यता (फर्टिलिटी) का | है, ऐसा माना गया है । विष्णु के परमपद को वहाँ मनुष्यों एक देवता है, एवं 'इंद्र-वृषाकपि-सूक्त' में निर्दिष्ट | | का चरम अभीष्ट, सुरक्षित शरणस्थल माना गया है (श. ब्रा. १.९.३)। 'वृषाकपि ' स्वयं विष्णु ही है (ऋ. १०.८६) । ऋग्वेद विष्णु का श्रेष्ठत्व-ब्राह्मण ग्रन्थों में प्राप्त विष्णु देवता में अन्यत्र विष्णु को 'शिपिविष्ट' (गूढरूप धारण | के वर्णन से प्रतीत होता है कि, उस समय विष्णु एक करनेवाला ) कहा गया है, एवं इसकी प्रार्थना की गयी है | सर्वश्रेष्ठ देवता मानना जाने लगा थी। उसी श्रेष्ठता का 'अपने इस रूप को हमसे गुप्त न रक्खो ' (ऋ. ७. साक्षात्कार कराने के लिए अनेकानेक कथाएँ उन ग्रन्थों में १००.६)। यह भ्रूणों का रक्षक है, एवं गर्भाधान के रचायी गयी है, जिनमें से निम्न दो कथाएँ प्रमुख हैं। लिए अन्य देवताओं के साथ इसका भी आवाहन किया गया है (३७.३६)। एक अत्यंत सुंदर बालक गर्भस्थ एक बार देवों ने ऐश्वर्यप्राप्ति के लिए एक यज्ञ किया, करने के लिए भी इसकी प्रार्थना की गयी है (ऋ. १०. जिस समय यह तय हुआ कि, जो यज्ञ के अंत तक सर्व प्रथम पहुँचेगा वह देव सर्वश्रेष्ठ माना जायेगा । उस समय १८४.१)। यज्ञस्वरूपी विष्णु अन्य सारे देवों से सर्वप्रथम यज्ञ के व्युत्पत्ति-विष्णु शब्द का मूल रूप 'विष' (सतत अंत तक पहुँच गया, जिस कारण यह सर्वश्रेष्ठ देव साबित क्रियाशील रहना) माना जाता है। मॅक्डोनेल, श्रेडर हुआ। आगे चल कर इसका धनुष टूट जाने के कारण, आदि अभ्यासकों ने इसी मत का स्वीकार किया इसका सिर भी टूट गया, जिसने सूर्यबिंब का आकार धारण है, एवं उनके अनुसार सतत क्रियाशील रहनेवाले सौर | किया (श. बा. १४.१.१)। उसी सिर को अश्विनों के स्वरूपी विष्णु को यह उपाधि सुयोग्य है | अन्य कई द्वारा पुनः जोड़ कर, यह द्युलोक का स्वामी बन गया (ते. अभ्यासक विष्णु शब्द का मूल रूप 'विश्' (व्यापन आ. ५.१.१-७)। करना) मानते है, एवं विश्व की उत्पत्ति करने के बाद ____ एक बार देवासुर-संग्राम में देवों की पराजय हुई, विष्णु ने उसका व्यापन किया, यह अर्थ वे 'विष्णु' एवं विजयी असुरों ने पृथ्वी का विभाजन करना प्रारंभ शब्द से ग्रहण करते है। पौराणिक साहित्य में भी इसी किया । वामनाकृति विष्णु के नेतृत्त्व में देवगण असुरों व्युत्पत्ति का स्वीकार किया गया है, जैसा कि विष्णुसहस्र के पास गया, एवं पृथ्वी का कुछ हिस्सा माँगने लगा। नाम की टीका में कहा गया है: फिर विष्णु की तीन पगों इतनी ही भूमि देवों को देने के चराचरेषु भूतेषु वेशनात् विष्णु रुच्यते । लिए असुर तैयार हुएँ । तत्काल विष्णु ने विराट रूप धारण किया, एवं अपने तीन पगों में तीनों लोक, वेद, एवं डॉ. दांडेकरजी के अनुसार, विष्णु का मूल रूप वाच को नाप लिया (श. ब्रा. १.२.५; ऐ. ब्रा. ६.१५)। 'वि+स्नु'था, एवं उससे हवा में तैरनेवाले पक्षी की ओर ___अवतारों का निर्देश-उपर्युक्त वामनावतार की कथा संकेत पाया जाता है (डॉ. दांडेकर, पृ. १३५)। के अतिरिक्त, विष्णु के वाराह अवतार का भी निर्देश ब्राह्मण ग्रन्थों में--ऋग्वेद में कनिष्ठ श्रेणी का देवता ब्राहाण ग्रंथों में प्राप्त है, जहाँ वाराहरूपधारी विष्णु माना गया विष्णु ब्राह्मण ग्रन्थों में सर्वश्रेष्ठ देवता माना पृथ्वी का उद्धार करने के लिए जल से बाहर आने गया प्रतीत होता है (श. बा. १४.१.१.५)। की कथा दी गयी है (श. बा. १४.१.२)। वहाँ इस यज्ञविधि में सर्वश्रेष्ठ देवता विष्णु है, एवं सर्वाधिक वाराह का नाम 'एमूष' बताया गया है। कनिष्ठ देवता अग्नि है, ऐसा स्पष्ट निर्देश ऐतरेय ब्राह्मण में विष्णु के दो अन्य अवतारों के स्रोत भी ब्राह्मण ग्रंथों प्राप्त है: में प्राप्त है, किन्तु उन्हें स्पष्ट रूप से विष्णु के अवतार अग्नि देवानामवमो, विष्णुः परमः । नही कहा गया है । प्रलयजल से मनु को बचानेवाला तदन्तरेण सर्वाः अन्याः देवताः॥ मत्स्य, एवं आद्यजल में भ्रमण करनेवाला कश्यप ये' (ऐ. बा.१.१)। शतपथब्राह्मण में निर्दिष्ट दो अवतार पौराणिक साहित्य शतपथब्राह्मण म नाष्टा
SR No.016121
Book TitleBharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Shastri Chitrav
PublisherBharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
Publication Year1964
Total Pages1228
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy