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विष्णु
प्राचीन चरित्रकोश
विष्णु
देवतागण मुखपूर्वक रहते हैं (ऋ. १.१५४.५, ८.२९)। एक सौरदेवता--ऋग्वेद में प्राप्त उपर्युक्त निर्देशों से इसी तेजस्वी निवासस्थान में इन्द्र एवं विष्णु का निवास | प्रतीत होता है कि, अपने विस्तृत पगों के द्वारा समस्त रहता है, एवं वहाँ पहुँचने की कामना प्रत्येक साधक | विश्व को नियमित रूप से पार करनेवाले सूर्य के रूप करता है । ऋग्वेद में अन्यत्र इसे तीन निवासस्थानोंवाला | में ही विष्णु देवता की धारणा वैदिक साहित्य में विकसित (त्रिषधस्थ ) कहा गया है (ऋ. १.१५६.५)। हुई थी । प्रत्येकी चार नाम (ऋतु ) धारण करनेवाले
ऋग्वेद में अन्यत्र विष्णु को पर्वत पर रहनेवाला अपने नब्वें अश्वों (दिनों) को विष्णु एक घूमते पहिये (गिरिक्षित् ), एवं पर्वतानुकल (गिरिष्ठा ) कहा गया है। के भौति गतिमान बनाता है, ऐसा एक रूपकात्मक वर्णन (ऋ. १.१५४)।
ऋग्वेद में प्राप्त है (ऋ. १.१५५.६ ) । यहाँ साल के पराक्रम-विष्णु के पराक्रम की अनेकानेक कथाएँ
| ३६० दिनों को प्रवर्तित करनेवाले सूर्य देवता का रूपक
स्पष्टरूप से प्रतीत होता है। ऋग्वेद में प्राप्त है । इसे साथ लेकर इंद्र ने वृत्र का वध किया था (ऋ. ६.२०)। इन दोनों ने मिल कर दासों को ब्राह्मण ग्रंथों में विष्णु का कटा हुआ मस्तक ही सूर्य पराजित किया, शबर के ९९ दुर्गों को ध्वस्त किया, एवं | बनने का निर्देश प्राप्त है (श. वा. १४.१.१.१०)। इसके वचिन् के दल पर विजय प्राप्त किया (ऋ७.९८)। हाथ में प्रवर्तित होनेवाला चक्र है, जो सूर्य के सदृश ही विष्णु के तीन पग--विष्णु का सब से बड़ा पराक्रम
प्रतीत होता है (ऋ. ५. ६३)। विष्णु का वाहन (विक्रम ) इसके 'त्रिपदों' का है, जहाँ इसने तीन पगों
गरुड़ है जिसे 'गरुत्मत् ' एवं 'सुपर्ण' ये 'सूर्यपक्षी.'.' में समस्त पृथ्वी, द्युलोक एवं अंतरिक्ष का व्यापन किया
अर्थ की उपाधियाँ प्रदान की गयी है (ऋ. १०.१४४, था (ऋ. १.२२.१७-१८)।अधिकांश युरोपीय विद्वान्
४)। विष्णु के द्वारा अपने वक्षःस्थल पर धारण किया । एवं यास्क के पूर्वाचार्य और्णवाभ, विष्णु के इन त्रिपदों का | गया कास्तुभ माण, इसक हाथ म स्थित पद्म, इसका अर्थ सूर्य का उदय, मध्याह्न, एवं सूर्यास्त मानते हैं। । पीतांबर एवं इसके 'केशव' एवं 'हृषीकेश' नामान्तर ये
सारे इसके सौरस्वरूप की ओर संकेत करते हैं। किन्तु बर्गेन, मॅक्डोनेल आदि युरोपीय विद्वान एवं शाकपूणि आदि भारतीय आचार्य, उपर्युक्त प्रकृत्यात्मक ____ कई अभ्यासकों के अनुसार, विष्णुदेवता की आविष्कृति व्याख्या को इस कारण अयोग्य मानते है कि. उसमें विष्ण | सर्वप्रथम 'सूर्यपक्षी' के रूप में हुई थी. एवं ऋग्वेद में के अत्युच्च तृतीय पग (परमपदं) का स्पष्टीकरण प्राप्त | निर्दिष्ट 'सुपर्ण' (गरुड पक्षी ) यही विष्णु का आद्य नहीं होता । विष्णु के इस तृतीय पग को सूर्यास्त मानना | स्वरूप था (ऋ. १०.१४९.३ ) । विष्णु के 'श्रीवत्स' अवास्तव प्रतीत होता है । इसी कारण इन अभ्यासकों के | 'कौस्तुभ' 'चर्तु जत्त्व' 'नाभिकमल' आदि सारे गुणअनुसार, यद्यपि विष्णु एक सौर देवता है, फिर भी उसके विशेष एवं उपाधियाँ, इसके इस पक्षीस्वरूप के ही द्योतक तीन पगों का अर्थ, सूर्योदय, मध्याह्न, सूर्यास्त आदि न | हो कर, पृथ्वी, अंतरिक्ष, एवं आकाश इन तीन लोगों का | भक्तवत्सलता--विष्णु के भक्तवत्सलता का निर्देश विष्णु के द्वारा किया गया व्यापन मानना ही अधिक | ऋग्वेद में अनेक बार प्राप्त है। अपने सारे पराक्रम योग्य होगा। ऐसे माने से विष्णु का 'परम पद' वर्लोक | इसने त्रस्त मनष्यों को आवास प्रदान करने के लिए एवं से समीकृत किया जा सकता है, जो समीकरण 'परम पद' |
लोकरक्षा के लिए किये थे (ऋ. ६.४९.१३; ७.१००; के अन्य वर्णनों से मिलता जुलता है।
१.१५५) । विष्णु की इसी भक्तवत्सलता का विकास नियमबद्ध गतिमानता-पराक्रमी होने के साथ साथ,
आगे चल कर विष्णु के अनेकानेक अवतारों की कल्पना विष्णु अत्यंत गतिमान, द्रुतगामी एवं तेजस्वी भी है।
में आविष्कृत हुआ, जहाँ नानाविध स्वरूप धारण करने यह अग्नि, सोन, सूर्य, उषस् की भाँति विश्व के विधि
की श्रीविष्णु की अद्भुत शक्ति का भी सुयोग्य उपयोग नियमों का पालन करनेवाला, एवं उन नियमों का प्रेरक किया गया (ऋ. ७.१००.१ )। भी है। इसी कारण, इसे 'क्षिप्र' 'एष', 'एवया', विष्णु के अवतारों का सुस्वष्ट निर्देश यद्यपि ऋग्वेद 'स्वदृश, विभूतद्यम्न 'एवयावन् । कहा गया है (ऋ. में अप्राप्य है, फिर भी वामन एवं वराह अवतारों का १.१५५.५ १५६.१)।
| धुंधलासा संकेत वहाँ पाया जाता है (ऋ. १.६१.७);
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