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लकुलिन्
प्राचीन चरित्रकोश
लक्ष्मण
से प्रविष्ट हो कर, यह कायावतार अथवा कायावरोहण २. अंगिरस्कुलोत्पन्न एक मंत्रकार। नामक तीर्थ में अवतीर्ण हुआ। इसके कुशिक, गर्ग, लक्ष्मण दाशरथि--राम दाशरथि राजा का कनिष्ठ मित्र, एवं कौरुष्य नामक चार शिष्य थे, जो जाति से | बन्धु, जो अयोध्या के दशरथ राजा को सुमित्रा से उत्पन्न ब्राह्मण, वेदवेत्ता, एवं ऊर्ध्वरेतस् थे ( शिव. शत. ५)। दो पुत्रों में से ज्येष्ठ पुत्र था। इसके कनिष्ठ बन्धु का नाम इसके इन शिष्यों ने पाशुपत नामक शिवोपासना की | शत्रुघ्न था। किन्तु इसकी विशेष आत्मीयता अपने ज्येष्ठ प्रतिष्ठापना की।
सापत्न बन्धु राम दाशरथि की ओर ही थी, जैसे इसके उदयपुर के उत्तर में १४ मैल पर स्थित नाथ-द्वार मंदीर | छोटे बन्धु शत्रुघ्न की सारी आत्मीयता भरत की ओर में ई. स. ९७१ एक शिलालेख प्राप्त है, जहाँ भृगु ऋषि के थी। इसी कारण राम एवं लक्ष्मण, तथा भरत एवं शत्रुघ्न द्वारा प्रार्थना किये जाने पर लकुलिन् नामक शिवावतार का स्नेहभाव प्राचीन भारतीय इतिहास में बन्धुप्रेम एवं भृगुकच्छ गांव में अवतीर्ण होने का निर्देश प्राप्त है। ई. बन्धुनिष्ठा का एक उच्चतम प्रतीक बन गया है। स. १२९६ के 'चिंत्रप्रशस्ति' नामक शिलालेख में अपने ज्येष्ठ भाई राम के सुख एवं रक्षा के लिए 'भट्टारक श्रीलकुलीश' नामक शिवावतार लाट देश में तत्पर रहनेवाले एक आदर्श कनिष्ठ बन्धु के रूप में, लक्ष्मण कारोहण नामक ग्राम में निवास करने का निर्देश प्राप्त का चरित्रचित्रण वाल्मीकिरामायण में किया गया है। है। मैसूर राज्य में हेमावती ग्राम में प्राप्त ई. स. ९४३ इस ग्रंथ में वर्णित लक्ष्मण वृद्धों की सेवा करनेवाला, के अन्य एक शिलालेख में लकुलिन् के द्वारा मुनिनाथ समर्थ, एवं मितभाषी है। अपने सौम्य स्वभाव, पवित्र चिल्लुक नाम से पुनः अवतार लेने का निर्देश प्राप्त है आचरण, एवं सत्कार्यदक्षता के कारण, यह राम को (डॉ. भांडारकर, वैष्णविजम, पृ. १६६)।
अत्यंत प्रिय था (वा. रा. सु. ३८.५९-६१)। डॉ. भांडारकरजी के अनुसार, लकुलिन् एक जीवित नाम-इसके लक्ष्मण नाम की निरुक्ति वाल्मीकि व्यक्ति था, जिसने पाशुपत नामक आद्य शैव सांप्रदाय | रामायण में प्राप्त है। यह लक्ष्मी का वर्धन करनेवाला की स्थापना की। इसके वासुदेव कृष्ण का समकालीन | (लक्ष्मीवर्धन), अथवा लक्ष्मी से युक्त (लक्ष्मीसंपन्न) होने के पुराणों में प्राप्त निर्देशों से प्रतीत होता है कि, | होने के कारण, वसिष्ठ के द्वारा इसका नाम लक्ष्मण पाशुपत सांप्रदाय स्थापन करने की प्रेरणा इसे पांचरात्र | रक्खा गया (वा.रा.बा. १८.२८, ३०)। यह शुभलक्षणी नामक वैष्णव संप्रदाय से प्राप्त हुई थी। इसी कारण, | होने के कारण, इसे लक्ष्मण नाम प्राप्त होने की कथा इसका काल ई. पू. २ री शताब्दी माना जाता है (रुद्र- | भी कई पुराणों में प्राप्त है (पन्न. उ. २६९) । किन्तु शिव देखिये)।
इसके नाम की ये सारी निरुक्तियाँ कल्पनारम्य प्रतीत लक्षणा--लक्ष्मणा नामक अप्सरा का नामान्तर होती है।
२. दुष्यन्त राजा की पत्नी लक्ष्मणा का नामान्तर | बाल्यकाल-दशरथ राजा के पुत्रकामेष्टि यज्ञ से जो (म. आ. ८९.८७७ %; लक्ष्मणा देखिये)।
पायस कौसल्या को प्राप्त हुआ था, उसी पायस के अंश ३. कृष्ण की पत्नी लक्ष्मणा का नामान्तर (लक्ष्मणा से लक्ष्मण का जन्म हुआ था (अ. रा. बा. ३.४२)। इस माद्री देखिये)।
कारण, लक्ष्मण बाल्यकाल से ही राम पर अत्यधिक प्रेम लक्ष्मण-(सो. कुरु.) दुर्योधन का एक पुत्र (म. करता था । बाल्यकाल में राम जब मृगया खेलने जाता था, उ. १६३.१४)। यह महारथि था, एवं कौरवसेना में | तब लक्ष्मण धनुष ले कर इसके साथ जाता था, एवं इसकी श्रेणी 'रथसत्तम' थी।
उसकी रक्षा करता था। सुबाहु एवं मारीच राक्षसों को भारतीय युद्ध में अभिमन्यु के साथ हुए युद्ध में यह परास्त कर, विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा करने के लिए परास्त हुआ था (म. भी. ५१.८-११,६९.३०-३६)। यह भी राम के साथ गया था। इस कार्य मे यशस्विता अन्त में अभिमन्यु के द्वारा ही इसका वध हुआ था (म. | प्राप्त करने के पश्चात् , यह भी राम के साथ मिथिला द्रो. ४५. १७)। वध के पूर्व, निम्नलिखित योद्धाओं | नगरी में सीता स्वयंवर के लिये उपस्थित हुआ था। के साथ युद्ध कर इसने काफी पराक्रम दिखाया थाः- वहाँ राम एवं सीता के विवाहमंडप में, इसका विवाह क्षत्रदेव (म. द्रो. १३.४४); अंबष्ठ (म.क. ४.२६); | सीरध्वज जनक की कन्या उर्मिला से संपन्न हुआ (वा. शिखंडिपु नक्षत्रदेव (म. क. ४,७७)।
| रा. बा. ६७-७३; राम दाशरथि देखिये)। प्रा. च. ९८]
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