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लक्ष्मण
प्राचीन चरित्रकोश
वनगमन के पूर्व -- अपने पिता की वचनपूर्ति के लिए राम ने चौदह वर्षों का वनवास स्वीकार लिया। अपने पिता के द्वारा ही राम को वनगमन का आदेश दिया गया है, यह सुन कर लक्ष्मण दशरथ से अत्यंत क्रुद्ध हुआ, एवं इसने उसकी अत्यंत कटु आलोचना की। यहीं नहीं, राम को अयोध्या के सिंहासन पर बिठाने के लिए, यह अपने पिता, भाई आदि लोगों का वध करने के लिए भी सिद्ध हुआ।
किंतु राम वनवास जाने के अपने निश्चय पर अटल रहा। फिर राम के साथ वनवास जाने का अपना निश्चय प्रकट करते हुए, इसने अपनी माता सुमित्रा से इसने अपनी माता सुमित्रा से
कहा
अनुरक्तोऽस्मि भावेन भ्रातरं देवि तत्त्वतः । सत्येन धनुषा चैव दत्तेनेष्टेन ते शपे || दोसमझिमरण्यं वा यदि राम प्रवेक्ष्यति । प्रविष्टं तत्र मां देवि त्वं पूर्वमवधारय ॥
"
( वा. रा. भयो. २१.१६-१७ ) । (राम में मेरी भक्तिपूर्ण सच्ची प्रीति है सत्य से । धनुष से, दान से, तथा इष्ट से तेरी शपथ खाता हूँ कि, जलती हुई अग्नि में वा वन में यदि राम जायेंगे, तो तुम मुझे उनके पहले गया समझना ) |
राम को पिता की आज्ञा में तत्पर देख, लक्ष्मण ने राम के साथ वनवास में जाना अपना कर्तव्य मान लिया, एवं यह वनगमन के लिए सिद्ध हुआ । राम के साथ वन जाने का दृढ करते हुए इसने कहा-
धनुरादाय सारं खनित्रपिटकाधरः। अग्रतस्ते गमिष्यामि पन्थानमनुदर्शयन् ॥
( वा. रा. अयो. ३१.२५ ) ।
( धनुष धारण कर, एवं हाथ में कुदाली तथा फावडा लिए, मैं आप लोगों का मार्ग प्रशस्त करने के लिए आगे रहूँगा ) |
इसने राम से आगे कहा, 'बन में, तुम्हारे लिए कंद, मूल, फल, एवं तपस्वियों को देने के लिए होम के आवश्यक पदार्थ मैं तुम्हे ला कर दूँगा । जागृत तथा निद्रित अवस्था में मैं सदैव तुम्हारी ही सेवा करता रहूँगा' ( वा. रा. अयो. २१.२६-२७) ।
वनवास वनवास के पहले दिन के अन्त में, राम ने इसे पुनः एकधार बनवास न आने की प्रार्थना की
किन्तु
इसने कहा, 'तुम्हारे वियोग में मुझे एक दिन भी रहना असंभव है; पानी के बिना मछली एक पल भर भी नहीं रह सकती है, वैसी ही मेरी अवस्था होगी ( वा. रा. अयो. ५३.३१ ) ।
वन में विचरते समय, सीता के आगे राम, एवं पीछे लक्ष्मण इस क्रम से ये चहते थे ( वा. रा. अयो. ५२. ९४ - ९६ ) । यह हर प्रकार राम की सेवा करता था । यह नदियों पर लड़ी के सेतु बाँध कर दूर स्थित नदी से पानी लाता था राम की चित्रकूट एवं पंचवटी में स्थित पर्णशाला इसने ही बाँधी थी (बा. रा. अयो ९९.१० ) । राम जब बाहर जाता था, तब यह सीता - संरक्षण के लिए उसके साथ रहता था।
लक्ष्मण
सीताहरण - जनस्थान में स्थित पंचवटी प्रदेश में राक्षसों का प्राबल्य देख कर, इसने राक्षससंग्राम करने से राम को पुनः पुनः मना किया था। आगे चल कर, राम की. आज्ञा से इसने शूर्पणखा राक्षसी के नाक काट कर उसे विरूप कर दिया ( वा. रा. अर. १८ ) । इसी कारण क्रुद्ध हो कर रावण ने मायामृग की सहाय्यता से सीता हरण करने के लिए जनस्थान में प्रवेश किया। मायामृग के संबंध में लक्ष्मण ने राम को पुनः पुनः चेतावनी दी, किन्तु राम ने इसकी एक न सुनी।
संरक्षण के लिए पर्णकुटी में ही बैठा रहा । किन्तु मायामृग के पीछे राम के चले जाने पर, यह सीता के ने इसे राम के पीछे न जाने के कारण इसकी कड़ आलोचना की, जिस कारण विवश हो कर सीता को छोड़ कर इसे राम के पीछे जाना पड़ा। वही अवसर पाकर रावण ने सीता का हरण किया ( राम दाशरथि देखिये) ।
राम से सोचना सीताहरण का वृत्त सुन कर राम क्रुद्ध हो कर त्रैलोक्य को दग्ध करने के लिए तैयार हुआ। उस समय इसने राम को सबिना दी एवं कहा
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सुमहान्त्यपि भूतानि देवाश्च पुरुषर्षभ । न देवस्य प्रमुञ्चन्ति सर्वभूतानि देहिनः ॥ ( वा. रा. अर. ६६.१.१ ) ।
( इस सृष्टि के सारे श्रेष्ठ लोग एवं साक्षात् देव भी दैवजात दुःखों से छुटकारा नहीं पा सकते । इसी कारण इन दुःखों से कष्टी नहीं होना चाहिए ) ।
सीता की खोज - सीता की खोज में क्रमशः जटायु, अयोमुखी, पबंध एवं शबरी आदि से मिल कर यह, राम