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कल्प
प्राचीन चरित्रकोश
कल्माषपाद
३. (सो. यदु. वसु.) वसुदेव को उपदेवा से उत्पन्न कहा कि, मेरा कथन असत्य नही हो सकता। तुम केवल पुत्र।
बारह वर्षों तक नरमांसभक्षक रहोगे। कल्मष-वायु के द्वारा सूर्य की सेवा में नियुक्त एक ___ संयम-यह सुन कर क्रुद्ध हो कर, इसने मुनी को शाप पारिपार्श्वक (भवि. ब्राह्म. ५३)।
देने के लिये हाथ में पानी लिया। परंतु गुरु को शाप कल्मषपावन-(सू.) भविष्य के मत में सर्वकामपुत्र ।। देना अयोग्य है, यों कह कर भार्या ने इसका निषेध कल्माष-कश्यप तथा कद्रु का पुत्र ।
किया । तब इसने सोचा कि, यह पानी यदि पृथ्वी पर २. सूर्य के द्वारपालों में से एक ( भवि. ब्राह्म. ७६ )।
पडेगा, तो अनाज आदि जल कर खाक हो जायेंगे, तथा
आकाश की ओर डाला तो मेघ सूख जावेंगे। ऐसा कल्माषपाद-(सू. इ.) सुदास राजा का पुत्र । इसे कोसलाधिपति मित्रसह अथवा सौदास ये नामांतर है
न हो, इसलिये इसने वह पानी अपने पैरों पर डाला ।
इसके क्रोध से वह पानी इतना अधिक तप्त हो गया था (म. आ. १६८; वायु. ८८.१७६; लिङ्ग. १.६६; ब्रह्म.८; ह. वं. १.१५)। परंतु इसे ऋतुपर्ण का पुत्र भी कहा है
कि, वह पानी पडते ही इसके पैर काले हो गये । तबसे
इसे कल्माषपाद कहने लगे (वा. रा. उ.६५, भा. ९. (मस्त्य. १२; अमि. २७३)। कल्माषपाद नाम से यह विशेष प्रख्यात था।
९.१८-३५; नारद. १.८-९; पद्म. उ. १३२). नामप्राप्ति—यह नाम इसे प्राप्त होने का कारण यह अन्यमत--महाभारतादि ग्रंथों में; इस के राक्षस होने था। एक बार जब यह मृगयाहेतु से अरण्य में गया | के कारण भिन्न भिन्न दिये गये हैं। एक बार जब यह शिकार था, तब इसने दो बाघ देखे। वे एक दूसरों के मित्र | से वापस आ रहा था, तब एक अत्यंत सँकरे मार्ग पर (वा. रा. उ. ६५), तथा भाई भाई थे (भा.९.९)। रेवा | वसिष्ठपुत्र शक्ति तथा इसकी मुलाकात हुई। मार्ग इतनां तथा नर्मदा के किनारे शिकार करते समय, नर्मदा | सँकरा था कि, केवल एक ही व्यक्ति वहाँ से जा सकता था। तट पर, इसने बाघ का एक मैथुनासक्त जोङ। देखा। इसने शक्ति को हटने के लिये कहा, परंतु उसने अमान्य उन में से मादा को इसने मार डाला । परंतु मरते मरते | कर दिया । बल्कि वह राजा को बताने लगा कि, मार्ग वह बहुत बड़ी हो गई (नारद. १.९)। तब दूसरे बाघ ने | ब्राह्मणों का है। धर्म यही है कि, राजा ब्राह्मण को मार्ग दे। राक्षसरूप धारण करके कहा कि, कभी न कभी मैं तुमसे | अन्त में अत्यंत क्रोधित हो कर, इसने राक्षस के समान बदला अवश्य चुकाऊंगा । यों कह कर वह गुप्त हो गया। उस ब्राह्मण को चाबुक से खूब मारा | तब शक्ती ने
वसिष्ठकोप-एक बार इसने अश्वमेध यज्ञ प्रारंभ कल्माषपाद को शाप दिया कि, तुम आज से नरभक्षक किया । तब यज्ञ के निमित्य से, वसिष्ठ ऋषि लंबी अवधि | राक्षस बनोगे । यही राजा जब यज्ञ करने के लिए तैय्यार तक इसके पास रहा। यज्ञसमाप्ति के दिन, एक बार हुआ तब, विश्वामित्र ने इसका अंगिकार किया। इसी वसिष्ठ स्नानसंध्या के लिये गया था। यह संधि देख | लिये वसिष्ठ तथा विश्वामित्र में वैरभाव निर्माण हुआ। कर उस राक्षस ने वसिष्ठ का रूप धारण कर लिया, तथा विश्वामित्र ने इसे कहा कि, जिसे तुमने मारा वह वसिष्ठराजा से कहा कि, आज यज्ञ समाप्त हो गया है, | पुत्र शक्ति है। तब इसे अत्यंत दुख हुआ। बाद में जब इसलिये तुम मुझे जल्द मांसयुक्त भोजन दो। राजा ने यह शक्ती के पास उश्शाप मांगने गया, तब विश्वामित्र आचारी लोगों को बुला कर, वैसा करने की आज्ञा दी । | ने इसके शरीर में रुधिर नामक राक्षस को प्रवेश करने की राजाज्ञा से आचारी घबरा गये। परंतु पुनः उसी राक्षस | आज्ञा दी (लिंग. १.६४) । राक्षस के द्वारा त्रस्त, यह राजा ने आचारी का रूप धारण कर, मानुष मांस तैय्यार कर के | एक दिन वन में घूम रहा था, तब क्षुधाक्रान्त ब्राह्मण राजा को दिया। तदनंतर वह अन्न राजा ने पत्नी मदयंती | ने इसे देखा । उस ब्राह्मण ने इसके पास मांसयुक्त भोजन सह गुरु वसिष्ठ को अर्पण किया। भोजनार्थ आया हुआ की याचना की । उसे कुछ काल तक स्वस्थ रहने की आज्ञा मांस मानुष है यह जान कर, वसिष्ठ अत्यंत क्रुद्ध हुआ तथा | दे कर यह घर आया, तथा अन्तःपुर में स्वस्थता से सो उसने राजा को नरमांसभक्षक राक्षस होने का शाप दिया। गया । मध्यरात्रि के समय जब यह जागृत हुआ, तो इसे तब इसने कहा कि, आपने ही मुझे ऐसी आज्ञा दी। ब्राह्मण को दिये हुए वचन का स्मरण हुआ। तब इसने यह सुनते ही वसिष्ठ ने अन्तर्दृष्टी से देखा । तब उसे पता | आचारी को मांसयुक्त भोजन बनाने की आज्ञा दी । वहाँ चला कि, यह उस राक्षस का दुष्कृत्य है। तदनंतर उसने | मांस बिल्कुल न था। तब राजा ने कहा कि, अगर दूसरा