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________________ प्राचीन चरित्रकोश वृत्र त्रिककुद् पर्वत पर हुआ। इंद्र ने इसका वध किया, एवं इसके द्वारा बद्ध किये गये मेथों को मुक्त कर (अप) उसी जल से इसे डुबो दिया (वृत्रं अवृणोत, ऋ. ३.४३ ) । इसकी मृत्यु की वार्ता वायु के द्वारा सर्व विश्व को ज्ञात हुई । वृत्र-इंद्रयुद्ध लो. इंद्र की तिथिनिर्णय त्ये तिलकजी के द्वारा किया गया है, जो उनके द्वारा १० अक्टूबर के दिन निश्चित किया गया है (लो. तिलक, आयों का मूलस्थान पृ. २०८ ) । व्युत्पत्तिपत्र' शब्द 'पृ' (आवृत करना, ढँकना) धातु से व्युत्पन्न हुआ माना जाता है। इसने जल को आवृत कर दिया था (अप वारिवांसम् ) । इस कारण इसे 'नाम ग्राम हुआ था (ऋ. १.१४) । यास्क के । अनुसार, इसे 'मेघ दैत्य' कहा गया है, एवं त्वष्ट्ट असुर के पुत्र (असुर) मानने के ऐतिहासिक परंपरा को योग्यताया गया है (नि. २,१६ ) । 6 छत्र । समा लिया किन्तु वहाँ भी इसने भूख का रूप धारण कर सारी सृष्टि को त्रस्त करना पुनः प्रारंभ किया ( तै. सं. २.४.१२ ) । । । इंद्र के द्वारा इसके पथ के संबंधी एक कथा तैत्तिरीय संहिता में प्राप्त है। कुत्र के द्वारा विदेह देश की गायों का निर्माण हुआ, जिनमें कृष्ण श्रीवायुक्त एक भी था। बैल इंद्र ने उस का अभि में हवन किया, जिससे प्रसन्न हो कर अभि ने इंद्र को वृत्र का वध करने के लिए समर्थ किया (तै. सं. २.१.४) । । - ब्राह्मण प्रन्थों में इन ग्रंथों में वृष एवं इंद्र को क्रमशः चंद्र एवं सूर्य की उपमा दी गई है। जिस प्रकार अमावास्या के दिन सूर्य चंद्र को निगल लेता है, उसी प्रकार इंद्र ने पुत्र को डुबो देने का निर्देश यहाँ प्राप्त है। एक बार असुरों ने वेद एवं वेदविद्या हस्तगत की, जिस कारण सारा देव पक्ष हतबल हुआ आगे च । चल कर, इंद्र ने विश्वकर्मन् पुत्र वृत्र नामक ब्राह्मण से तीनों वेद (ऋक्, यजुः । साम ) जीत लिये, एवं वृत्र का वध क्रिया (श. १.१.२.४१ २.१.२.१२० ४.१.२.१० ब्रा ५.६.६१)। -- सामूहिक नाम ऋग्वेद में 'शब्द का बहुवचनी रूप ' वृत्राणि ' अनेक स्थान पर प्राप्त है, जिससे प्रतीत होता है कि, एक सामूहिक नाम के नाते वृत्र के अतिरिक्त कई अन्य असुरों के लिए भी यह शब्द प्रयुक्त किया जाता था। ऐसे कई विभिन्न असुरो के नाथों का ऋग्वेद मैं उल्लेख प्राप्त है (ऋ.७.१९) । दधीचि ऋषि के अस्थियों से बने हुए अस्त्रों की सहायता से, दंद्र ने निन्यानव्ये किया था. १८४) । ऋग्वेद में वहाँ सामान्य विरोधक अथवा शत्रु को 'दास' अथवा 'दस्यु' कहा गया है, वहाँ दैत्य शत्रुओं को 'वृत्र' कहा गया है। इस प्रकार सामूहिक रूप में 'वृत्र' शब्द 'दानवी अवरो धक अर्थ में ही प्रयुक्त किया गया प्रतीत होता है। 'अवेस्ता में वेरन शब्द 'विजय' अर्थ में प्रयुक्त किया गया है, जो अवरोध का ही विकसित रूप प्रतीत होता है। , तैतिरीय संहिता में - इस ग्रंथ में वृत्र को त्वष्टृ का पुत्र कहा गया है, एवं इसकी जन्मकथा निम्नप्रकार दी गयी है । एक बार वट्ट यज्ञ ने यश किया, जहाँ यश में सिद्ध किया गया सोम उसने समस्त देवताओं को दिया, किन्तु अपने पुत्रवरूप का वध करनेवाले इंद्र को नहीं दिया। इंद्र के हिस्से का सोम उसने अग्नि में डाल दिया, जिससे आगे चल कर वृत्र का जन्म हुआ । बड़ा होने पर, इसने समस्त सृष्टि को त्रस्त करना प्रारंभ किया । इसके भय से विष्णु ने स्वयं के तीन भाग किये एवं उन्हें तीनों लोकों में छिपा दिये। इंद्र ने विष्णु की सहायता से इसे ज्यादा बढ़ने न दिया एवं अपने पेट में तपस्या -- अपने पिता की आज्ञा से इसने ब्रह्मा की अत्यंत कठोर तपस्या की, जिस कारण ब्रह्मा ने प्रसन्न हो कर इसे वर प्रदान किया, 'आज से तुम अमर होगे, तथा लोह एवं काठ, आर्द्र एवं शुष्क आदि कौनसे भी अब से दिन में या रात में तुम्हें मृत्यु न आयेगी (हे. भा. ६.१.० ) । आगे चलकर इसी वर के प्रभाव से इसने ११२] ८९७ महाभारत एवं पुराणों में-- महाभारत में इसे कृतयुग का एक असुर कहा गया है, एवं इसके पिता एवं माता के नाम क्रमशः कश्यप एवं दिति ( दनायु) दिये गये हैं । दिति के बल नामक पुत्र का इंद्र ने वध किया, जिस कारण सद्ध हो कर दिति ने इन्द्र का वध करनेक्रुद्ध वाला पुत्र निर्माण करने की प्रार्थना कप से की। इस पर कस्यप ने अपनी जटा शटक कर अग्नि में हवन की। इसी अभि से अवस्काय वृष का निर्माण हुआ (पद्म अग्नि वृत्र उ. ९) । भागवत में इसे त्वष्टृ का पुत्र कहा गया है, जो उसने अपने पुत्र विश्वरूप का वध करनेवाले इंद्र का बदला लेने । ब्रह्मांड के लिए निर्माण किया था ( मा. ६.९-१२) में इसकी माता का नाम अनायुपा दिया गया है (ड २.६.३५ ) ।
SR No.016121
Book TitleBharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Shastri Chitrav
PublisherBharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
Publication Year1964
Total Pages1228
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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