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भीमसेन
के महोक्स राजा को जीत कर इराने बंगराज पर आक्रमण कर दिया।
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प्राचीन चरित्रकोश
इसकी विजय यही समाप्त न हुयी। इसके उपरांत समुद्रसेन, चन्द्र सेन, ताम्रलिप्त, कर्वटाधिपति, सुह्माधिपति सागरवासी मलेच्छों खोहित्यों आदि को जीत कर यह इंद्रप्रस्थ को वापस आया ( म. स. २६-२७ ) । राजसूययज्ञ——चारों भाई जब चारों दिशाओं से दिग्विजय कर के, अतुल धनाराशि के साथ वापस लौटे, तत्र धर्मराज ने राजस्वयज्ञ आरंभ किया। इस यज्ञ में हर भाई को भिन्न भिन्न कार्य सौंपे गये, जिसमें भीम को पाकशाला का अधिपति बनाया गया ( भा. १०.७५. ४) ।
यह राजसूययज्ञ मयसभा में हुआ, जिसकी रचना बड़ी चतुरता के साथ की गयी थी । जो कोई उसे देखता, यह उसकी विचित्रता देख कर चकित रहा जाता। इस सभा में पाण्डवों ने अपने वलरेश्वर्य की ऐसी शाँकी प्रस्तुत की, कि दुर्योधन ईर्ष्या से जला जा रहा था । इसके सिवाय उसे कई जगह मूर्ख बनना पड़ा, तथा जहाँ कहीं दुर्योधन को नीचा देखना पड़ता, वहीं मीम अट्टाहास करता हुआ उसकी हँसी उड़ाता। इसका यह परिणाम हुआ कि, दुर्योधन ने पाण्डवों के समस्त ऐश्वयं को कुचल कर मिटा देने के लिए, एक योजना बनाई ।
भीमसेन
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'अस्या: कृते मन्युस्त्वयि राजन्निपात्यते । बाहू ते संप्रवक्ष्यामि, सहदेवाग्निमानय || " ( म. स. ६१.६ )
द्रौपदी वस्त्रहरण -- दुर्योधन ने धर्मराज को द्यूतक्रीड़ा के लिए बुलाया | दुर्योधन ने अपने स्थान पर शकुनि को आसन दे कर, कपटतापूर्ण ढंग से धर्मराज की समस्त धनसंपत्ति का ही हरण न किया बल्कि द्रौपदी को भी जीत कर, उसे भरी सभा में बुला कर उसका अपमान किया । दुःशासन उसका वस्त्र खींचने लगा, एवं दुर्योधन अपने बायें अंग को नम कर के द्रौपदी के सामने खड़ा हो गया । दुःशासन की इस धृष्टता को देख कर, भीम उबल पड़ा, एवं इसने उसकी बॉबी जॉत्र तोड देने की एवं उसकी छाती फाड कर उसका रक्त पीने की भीषण प्रतिज्ञा की ( म. स. ५३.६३ ) ।
अपने भाई युधिष्ठिर के ही कारण नूतक्रीडा का भयानक संकट आ गया, यह सोचकर भीम युधिष्ठिर से अत्यधिक क्रोधित हुआ। इसने उससे कहा, 'जो कुछ । हुआ है, उसके जिम्मेदार तुम ही हो तुम्हारे ही हाथों का दोष है, जिन्होंने द्यूत खेल कर धनलक्ष्मी, ऐश्वर्य सब कुछ मिट्टी में मिला दिया '। इतना कहा कर इसने अपने भाई सहदेव से कहा:
(तुम मुझे अनि खा कर दो, मेरी इच्छा है कि, युधिष्ठिर के त खेलनेवाले हाथों को जला हूँ) |
दुःशासन के द्वारा किये गये उपहास पर क्रोधित होकर, इसने प्रण किया कि, यह दुर्योधन के साथ धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों का वध करेगा ( म. स. ६८.२०-२२) । वनवास - वनवासगमन का निश्चय हो जाने के उपरांत, भीम समस्त भाईयों के साथ वन की और चल पड़ा। वहाँ बक के भाई किर्मीर के साथ युधिष्ठिर की ऐसी बातें हुई कि स्थिति युद्ध तक आ पहुँची । तब भीम ने उसे परास्त कर उसका वध किया (म.व. १२.२२-६७) ।
गण एक बार जब यह द्रौपदी से प्रेमालाप करता हुआ बातों में विभोर था, तब हवा में उड़ता हुआ एक हज़ार पंखुडियोंवाला (सहस्रदल) कमल इनके सामने आ गिरा। तब द्रौपदी ने उस प्रकार के कई कम इससे लाने को कहे अपनी प्रियतमा की इच्छा पूर्ण करने के लिए भीम वैसे ही पुण्य खाने के लिए गंधमादन पर्वत पर आ पहुँचा (म. व. १४६.१९)। इसके चलते समय होनेवाली गर्जना से हनुमान् ने इसे पहचान लिया तथा आगे जाने पर कोई इसे शाप न दे, इस भय से वह मार्ग में अपनी पूँछ फैला कर बैठ गया। ।
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वहाँ आकर इसने हनुमान को मार्ग से हटने लिए कहा, तथा उसके न हटने पर इसने उसकी पूँछ पकड़ कर फेंक देने का प्रयत्न किया। किन्तु जब यह पूंछ तक न उठा सका, तब यह उसकी शरण में गया। हनुमान ने इस प्रकार इसके अभिमान को नीचा दिखा कर इसे सदु पदेश दिए। समुद्रोल्लंघन काल में धारण किये गये अपने विराटरूप को दिखा कर, हनुमान् ने भीम को आशीष दे कर वर दिया, 'जिस समय तुम रण में सिंहनाद करोगे, उस समय मै अपनी आवाज़ से तुम्हारी आवाज़ ५६४
वनवास काल में जब द्रौपदी ने युधिष्ठिर से सन्यास -- वृति को त्याग कर, राज्यप्राप्ति के लिए प्रयत्न करने को कहा, तब भीम ने भी धर्मराज के पुरुषार्थ की प्रशंसा करते हुए, उसे युद्ध के लिए उत्साहित किया था ।
इसने युधिष्ठिर से कहा, 'तुम्हे धर्माचरण ही करना हो तो तुम संन्यास ले कर तपस्या करने वन में चले जाना (म. व. २४) किन्तु धर्मराज के युक्तिपूर्ण वचनों के आगे यह चुप हो गया (म. व. २४-२५ ) ।
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