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मंकणक
प्राचीन चरित्रकोश
मांक
वेषधारी शंकर ने अपने अंगूठे में एक चोट मारकर मंकि-एक प्राचीन आचार्य, जिसकी कथा भीष्म ने उससे बर्फ की तरह श्वेत झरती हुयी भस्म निकाली, युधिष्ठिर से कही थी। इस कथा का यही सार था कि, जिसे देखकर यह चकित हो उठा। यह तत्काल समझ जो भाग्य में होगा उसे कोई टाल नहीं सकता । 'चाहे गया कि, वह कोई अवतारी महापुरुष है । इसके नमस्कार जितना बल पौरुष का प्रयोग करो, किन्तु यदि भाग्य में करते ही शंकर ने अपने दर्शन दिये, तथा प्रसन्न होकर बदा नहीं है, तो कुछ भी न होगा। संसार में हर एक वर माँगने के लिए कहा। मंकणक ने शंकरजी के पैरों व्यक्ति की सामान्य कामनाएँ भी अपूर्ण रहती है। इसी में गिरकर स्तुति की, तथा वर माँगा कि, वह इसे इस कारण कामना का त्याग करना ही सुखप्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ अपार प्रसन्नता से मुक्त करें, जिसके प्रसन्नता के उन्माद मार्ग है', यही महान् तत्त्व मंकि के जीवनकथा से दर्शाया में यह अपनी तपस्या से भी विलग हो गया था। शंकर ने | गया है। कहा, 'ऐसा ही होगा, मेरे प्रसाद से.तुम्हारा तप सहस्र | मंकि नामक एक लोभी किसान था, जो हर क्षण धन गुना अधिक हो जायेगा' (म. व. ८१.९८-११४; श.३७. | प्राप्त की लिप्सा में सदैव अन्धा रहता था। एक बार २९-४८; पद्म. स. १८; ख. २७; स्कन्द. ७.१-३६; इसने दो बैल लिए, तथा उन्हे जुएँ में जोत कर यह खेत पर २७०)। . .
काम कर रहा था। जिस समय बैल तेजी के साथ चल रहे थे, एक बार तपस्याकाल में यह स्नान हेतु सरस्वती नदी में उसी समय उनके मार्ग में एक ऊँट बैठा था। इसने ऊँट उतरा । वहाँ समीप ही स्नान करनेवाली एक सुन्दरी को न देखा, और बैलों के साथ उसकी पीठ पर जा पहुँचा । देखकर इसका वीर्य स्खलित हुआ। यह देख कर इसने इसका परिणाम यह हुआ कि, दौड़ते हुए दोनों बैलों को उस वीर्य को कमण्डलु में एकत्र कर उसके सात भाग अपनी पीठ पर तराजू की भाँति लटका कर ऊँट भी इतनी किये, जिससे निम्नलिखित सात पुत्र उत्पन्न हुए:-वायुवेग, | जोर से भगा कि, दोनों बैल तत्काल ही मर गये। वायुबल, वायुहा, वायुमण्डल, वायुज्वाल, वायुरेतम् और | यह देख कर मंकि को बड़ा दुःख हुआ, एवं इस वायुचक्र (म. श. ३७.२९-३२; मरुत् देखिये) महाभारत अवसर पर इसने भाग्य के सम्बन्ध में बड़े उच्च कोटि के में इन सातों पुत्रों को सप्तर्षि कहा गया है। यही सात विचार प्रकट किये, जिसमें तृष्णा तथा कामना की गहरी पुत्र मरुतों के जनक हैं।
आलोचना प्रस्तुत की गयी है। इसके यह सभी विचार मंकन--वाराणसी में निवास करनेवाला एक नामी,
'मंकि गीता' में संग्रहित हैं। उक्त घटना से इसे वैराग्य जो श्रीगणेशजी का परम भक्त था। दिवोदास (द्वितीय) उत्पन्न हुआ, एवं अन्त में यह धनलिप्सा से विरक्त हो के राज्यकाल में, शिवजी ने काशी नगर को निर्जन बनाना |
| कर परमानंद स्वरूप परब्रह्म को प्राप्त हुआ (म. शां. चाहा । इस काम के लिये, उसने अपने पुत्र श्रीगणेश
१७१.१-५६)। (निकुंभ) को नियुक्त किया।
तत्त्वज्ञान-'मंकि गीता' का सार भीष्म के द्वारा तदोपरांत, श्रीगणेश ने मंकन को दृष्टांत दे कर काशी
इस प्रकार वर्णित है:नगरी के सीमापर अपना एक मंदिर बँधवाने के लिए
सर्वसाम्यम् अनायासः, सत्यवाक्यं च भारत । कहा, जिस आज्ञा का इसने तुरंत पालन किया। काशी
निर्वेदश्चाविवित्सा च, यस्य स्यात्स सुखी नरः ॥ का यह 'निकुंभ मंदिर' अत्यधिक सुविख्यात हुआ, एवं
(म. शां १७१.२)। अपना ईप्सित प्राप्त करने के लिये देश देश के लोग उसके मंकि का यह तत्त्वज्ञान बौद्धपूर्वकालीन आजीवक दर्शन के लिये आने लगे। निकंभ ने अपने सारे भक्तों | सम्प्रदाय के आचार्य मंखलि गोसाल के तत्त्वज्ञान से काफी की कामनाएँ पूरी की, किंतु दिवोदास राजा की पुत्रप्राप्ति साम्य रखता है। यह दैववाद की विचारधारा को की इच्छा अपूर्ण ही रख दी, जिस कारण क्रुद्ध हो कर मान्यता देनेवाला आचार्य था। केवल दैव ही बलवान् है, उसने निकुंभ मंदिर को उद्ध्वस्त किया। इस पाप के क्तिना ही परिश्रम एवं पुरुषार्थ करो, किन्तु सिद्धि प्राप्त कारण, निकुंभ ने समस्त काशी नगर निर्जन होने का शाप नहीं होती, यही 'मंकि गीता' का उपदेश है, तथा दिवोदास राजा को दे दिया, एवं इस तरह काशी नगर ऐसा ही प्रतिपादन मंखलि गोसाल का था। को विरान बनाने की शिवाजी की कामना पूरी हो गई। सम्भव है, मंकी तथा मंखलि गोसाल दोनों एक ही (वायु. ९२.३८; ब्रह्मांड ३.६७.४३)।
व्यक्ति हों। आजीवक सम्प्रदाय भोग-प्रधान दैववाद का ५९५