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ययाति
प्राचीन चरित्रकोश
ययाति
जो अश्रुबिन्दु टपका, उसीसे इस सुंदरी का जन्म हुआ तथा समस्त देव, दानवों एचं मनुष्यों में यह अजेय है। अब यह बड़ी हो गयी है, तथा स्वयंवर करना साबित हुआ (ह. वं. १.३०.६-७)। लिंग में यह भी चाहती है। यह सुन कर ययाति ने अश्रुबिन्दुमती से दिया गया है कि, यह रथ ययाति को शुक्र के द्वारा दिया कहा, 'मैं तुमसे शादी करने को तैयार हूँ' अश्रबि- गया था, तथा उसके साथ अक्षय तूणीर भी इसे दिये दुमती ने कहा, 'यदि तुम दूसरे को जरा दे कर यौवन | गये थे (लिंग. १.६६)। ब्रह्म के अनुसार, इसने पृथ्वी प्राप्त कर लो, तब मैं तुम्हारे साथ विवाह कर सकती | को छः दिनों में, तथा लिंग के अनुसार छः महीने में
| जीता था (ब्रह्म. १२, लिंग. १.६६)। ब्रह्मदेव द्वारा यह सुन कर, यौवन माँगने के लिए यह अपने 'तुरु', निर्मित दिव्य खड्ग नहुष ने इसे दिये, तथा इसने वह 'यदु', 'कुरु', एवं 'पूरु' इन चार पुत्रों के पास | पूरु को दे दिया था (म. शां. १६०.७३ )। गया। उनमें से तुरु एवं यदु ने इसे यौवन देने से इन्कार | यह अपने समय का बड़ा प्रसिद्ध राजा था, जिसके किया, जिस कारण इसने उन्हे नानाविध तरह के शाप | नाम के सामने स्थान स्थान पर 'सम्राट' 'सार्वभौम' दिये। तीसरा पुत्र कुरु अल्पवय का था, अतएव यह उसके इत्यादि उपाधियों लगाई जाती थीं। जब यह यज्ञ करता पास न गया। चौथे पुत्र पूरु ने अपना यौवन इसे प्रदान | था, तब सरस्वती तथा अन्य नदियाँ, सप्तसागर तथा पर्वत किया । तत्पश्चात् इसने अश्रुबिंदुमती से विवाह किया, | इसे दुग्ध तथा घी देते थे (म. श.४०.३०)। देवासुरजिसने इसे अपनी अन्य दो पत्नियों से सबंध न रखने की | युद्ध में इसने देवताओं की सहायता की थी (म. द्रो. शर्त विवाह के समय लगा दी।
परि. १. क्र.८. पंक्ति. ५७३; शां. २९.९०)। अज्ञात- इसे एवं अश्रुबिन्दुमती को इस प्रकार रहते देख कर. | वास के अन्त में पांडवों के द्वारा किया गया युद्ध देखने देवयानी तथा शर्मिष्ठा को अत्यधिक सौतिया दाह हआ। के लिये, यह देवों के विमान में बैठ कर आया था (म. यह देख कर इसने यदु को आज्ञा दी, 'इन दोनों का | वि. ५१.९)। वध करो। किन्तु उसने इसकी आज्ञा का उल्लंघन | धार्मिकता-जहाँ राजाओं में यह सम्राट था, वही . किया। इससे क्रोधित हो कर ययाति ने यदु को शाप | इसमें दानवीरता की भी कमी न भी (म. व. परि. १. दिया, 'तुम्हारे वंश के पुरुष मामा की पुत्री के साथ वरण | क्र. २)। यह बड़ा प्रजापालक राजा था (म. आ. ८४. करेंगे, तथा मातृद्रव्य में हिस्सा लेंगे ( पद्म. भू. ८०.१३) ८५७*; शां. २९.८८-८९; अनु. ८१.५)। इसने । बाद में, मेनका के सुझाये जाने पर अश्रुबिन्दुमती ने | गुरुदक्षिणा देने के लिए, एक ब्राह्मण को हजार गौओं इससे अनुरोध किया कि, यह स्वर्ग देखने चले । तब इसने | का दान किया था (म. व. १९०. परि. १.२०. ३) अपना सम्पूर्ण राज्य पूरु को दे कर, उसे राजनीति का सरस्वती नदी के किनारे जो 'यायत' नामक प्रसिद्ध उपदेश दिया, एवं यह वैकुंठ चला गया (पद्म. भृ. ६४. | तीर्थ है, वह इसीके कारण प्रचलित हुआ (म. श. ८३; ७७.७७)।
४०.२९)। यह शंकर का बड़ा भक्त था (लिंग १. श्रेष्ठ सम्राट-इसका जीवन विभिन्न प्रकार के मोडों से | ६६)। इसे 'काशीपति' भी कहा गया है (म.उ. ११३. गुज़रा। एक ओर जहाँ यह धर्मात्मा, दानी महापुरुष था. ३)। यह यमसभा में रह कर सूर्यपुत्र यम की उपासना वही कालचक्र में फंस कर भोग-लिप्सा में ऐसा चिपका करता था (म. स. ८.८)।
अपने को ही भूल बैठा। किन्तु विभिन्न प्रभावों के परिवार-ययाति को दो पत्नियाँ थीः--१. देवयानी. द्वारा किये गये इसके कार्यों को छोड़ कर, इसका निष्पक्ष रूप जो सुविख्यात भार्गव ऋषि उशनस् शुक्र की कन्या थी, से अवलोकन करने पर पता चलता है कि, ययाति मन तथा | २. शर्मिष्ठा, जो असुर राजा वृषपर्वन् की कन्या थी। पन इन्द्रियों को संयम में रखनेवाला भूमण्डल का श्रेष्ठ सम्राट | में इसकी अश्रुबिंदुमती नामक तृतीय पत्नी का निर्देश था। इसके भक्तिभाव से देवताओं तथा पितरों का पूजन प्राप्त है (पद्म. भू. ६४.१०८)। किन्तु अन्य कहीं भी कर, यज्ञों के अनुष्ठानों को करते हुए, समस्त पृथ्वी का | उसका निर्देश अप्राप्य है। पालन किया था (म. आ. ८०)।
- ययाति राजा को कुल पाँच पुत्र थे। उनमें से यदु इन्द्र ने इसे एक स्वर्ण का रथ दिया था। इस रथ को एवं तर्वसु इसे देवयानी से, एवं अनु, द्रुह्यु एवं पूरु नामक ले कर इसने छः रात्रियों में सम्पूर्ण पृथ्वी को जीत लिया, | तीन पुत्र शर्मिष्ठा से उत्पन्न हुए थे (म. आ. ८०.१३प्रा. च. ८६]
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