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________________ ययाति जो सदैव भोगलिप्सा में ही विश्वास करते थे ( भा. ९. १९ ) । अत्यधिक भोग लिप्सा से आत्मा किस प्रकार विरक्त बनती है, इसकी कथा इसने पुत्र पूरु को सुनाई, एवं कहा: प्राचीन चरित्रकोश न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवमेव भूय एवाभिवर्धते ॥ (म. आ. ८०, ८४०*; विष्णु. ४. १०. ९-१५ ) । ( कामोपभोग से काम की तृष्णा कम नहीं होती, बल्कि बढ़ती है, जैसे कि अभि में हविर्भाग डालने से वह और जोर से भड़क उठती है। ) वानप्रस्थाश्रम - अंत में इसने पूरु को उसकी जवानी लौटा कर, उससे अपनी वृद्धावस्था ले ली। इसके उपरांत, इसने बड़े शौक से पूरु को राज्याभिषेक किया। जनता ने इसका विरोध किया कि, राज्य उयेष्ठ पुत्र को ही मिलना चाहिए। किन्तु इसने जनता को तर्कपूर्ण उत्तर दे कर शान्त किया तथा वानप्रस्थाश्रम की दीक्षा ले कर ब्राह्मणों के साथ यह वन चला गया (म. आ. ८१. १-२) । " पुत्र पुराणों के अनुसार, वनगमन के पूर्व ययाति ने अपने प्रत्येक को भिन्न भिन्न प्रदेश दिये । तुर्वसु को आग्नेय, यदु को नैत्य त्यु को पश्चिम, अनु को उत्तर तथा पूरु को गंगा-जमुना के बीच में स्थित मध्य प्रदेश दिया ( वायु. ९३; कूर्म. १. २२ ) । कई पुराणों में यही जानकारी कुछ अन्य प्रकार से दी गयी है, जो निम्नलिखित है:- यदु को ईशान्य (ह. वं. १.३०.१७ - १९ ) पूर्व (ब्रह्म. १२), दक्षिण (विष्णु. ४.३० लिंग १. ६६ ); द्रुहा को आग्नेय; यदु को दक्षिण; तुर्वसु को पश्चिम, तथा अनु को उत्तर प्रदेश का राज्य दिया गया (भा. ९.१९)। ययाति ने अपने पुण्य का अठवाँ अंश इसे प्रदान किया, जिस कारण यह पुनः स्वर्ग का अधिकारी बन गया (म. आ. ८१-८८ मत्स्य २५-४२ माधवी देखिये) । बाद में नैमिषारण्य में पाँच स्वर्णरथ आये, जिनमें चढ़ कर यह अपने चार नातियों के साथ पुनः स्वर्गलोक ३ अधिकारी हुआ। स्वर्गलोक में जाने के उपरांत, ब्रह्मदेव ने इसे बताया, 'तुम्हारे पतन का कारण तुम्ह अभिमान ही था। अब तुम यहाँ आ गये हो, तो अभिमान छोड़ कर स्वस्थ मन से यहाँ वास करो (4 आ. ८१-८८: उ. ११८-१२१ २४-४२ ) । मत्स्य. वाक्ष्मीकि रामायण में ययाति की यह कथा वाल्मीकि रामायण में भी प्राप्त है, किंतु वह कथा पुराणों से कुछ भिन्न है । उसमें लिखा हैं कि, जब यदु ने इसकी जरावस्था को स्वीकार न किया, तब इसने शाप दिया, 'तुम यातुधान तथा राक्षस उत्पन्न करोगे। सोमकुल में तुम्हारी संतति न रहेगी, तथा वह उदण्ड होगी' । इसी के शाप के कारण, यदु राजा से क्रौंचयन नामक वन में हजारो यातुधान उत्पन्न हुए ( वा. रा. उ. ५९ ) । पद्म में - पद्म के अनुसार, पहले यह बड़ी धार्मिक प्रवृत्ति का राजा था, तथा धर्मभावना से ही राज्य करता था। किंतु इन्द्र के द्वारा भड़काने पर, इसका मस्तिष्क कुमार्गों की ओर संग गया। उत्तरयायात आख्यान अपने पुत्रों को राज्य प्रदान करने के पश्चात्, इसने 啊 पर्वत पर आ कर तप किया, एवं अपनी भार्याओं के साथ यह स्वर्गलोक गया । स्वर्ग में जाने के उपरांत, इसके घमण्डी स्वभाव, एवं दूसरों को अपमानित करने की भावना ने इसे निस्तेज कर दिया, एवं इंद्र ने इसे स्वर्ग से भौमनर्क में ढकेल दिया। किन्तु यह अपनी इच्छा के अनुसार, नैमिषारण्य में इसकी कन्या माधवी के पुत्र प्रतर्दन, बतुमनस शिवि तथा अष्टक जहाँ यज्ञ कर रहे थे, वहाँ जा कर गिरा । तत्र इसकी कन्या माधवी ने अपना आधा पुण्य, तथा गालव , ६८० इसकी धर्मपरायणता को देख कर इंद्र को शंका होने लगी कि, कहीं यह मेरे इंद्रासन को न ले ले | अतएव उसने अपने सारथी मातलि को भेजा कि, वह इसे ले आये। मातलि तथा इसके बीच परमार्थ के संबंध में संवाद हुआ, परंतु यह स्वर्ग न गया । त इन्द्र ने गंधर्वों के द्वारा ययाति के सामने 'वामनावतार' नाटक करवाया। उसमें रति की भूमिका देख कर यह विमुग्ध हो उठा। अमित से वह एक बार मलमूत्रोत्सर्ग करने के बाद इससे पैर न धोया। यह देख कर बरा तथा मन में इसके शरीर में प्रवेश किया। कालांतर में एक बार जब यह शिकार के लिए अरण्य में गया था, तब इसे ' अश्रुविन्दुमती' नामक एक सुंदर स्त्री दिखाई दी । तब इसने उसका परिचय प्राप्त करना चाहा। तब उसकी सखी विशाला ने उसका परिचय देते हुए इसे बताया, 6 मदन दहन के उपरांत रति ने अति विख्यप किया, तब देवों ने उस पर दया कर के अनंग मदन का निर्माण किया। इस प्रकार अपने पति को पुनः पा कर रति प्रसन्नता से रोने लगी । रोते समय उसकी बाँयी आँख से --
SR No.016121
Book TitleBharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Shastri Chitrav
PublisherBharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
Publication Year1964
Total Pages1228
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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