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________________ कालगणनापद्धति प्राचीन चरित्रकोश कालगणनापद्धति रोच्य एवं भौत्य नामक सात मन्वन्तर क्रमशः आनेवाले | नक्षत्र के काल में की गयी थी। खगोल एवं ज्योतिःशास्त्र के हिसाब से, कृत्तिका एवं मृगशिरा नक्षत्रों में वसंतपौराणिक साहित्य में प्राप्त कल्पना के अनुसार, मनु | संपात क्रमशः आज से ४५०० एवं ६५०० सालों के पूर्व वैवस्वत को इस सृष्टि का पहला राजा माना गया है, थी। इसी हिसाब से ब्राह्मण ग्रंथ एवं वैदिक संहिता का काल एवं उस साहित्य में निर्दिष्ट सूर्य, सोम आदि सारे वंश | क्रमशः २५०० ई. पू. एवं ४५०० ई. पू. लगभग निश्चित उसीसे उत्पन्न माने गये हैं। यदि भारतीय युद्ध का किया जाता है। काल १४०० ई. पू. माना जाये, तो मनु वैवस्वत का सप्तर्षि शक-ज्योतिर्विज्ञान की कल्पना के अनुसार, काल इस युद्ध के पहले ९५ पीढ़ीयाँ अर्थात् (९५४ आकाश में स्थित सप्तर्षि तारकापुंज की अपनी गति रहती १८ वर्ष + १४०० =) ३११० ई. पू. साबित होता है। है, एवं वे वह सौ साल में एक नक्षत्र भ्रमण करते हैं । कल्पों की नामावलि-मन्वंतरों के साथ-साथ. कल्पांतरों | इस प्रकार समस्त नक्षत्र मंडळ का भ्रमण पूर्ण करने के की नामावलि भी पौराणिक साहित्य में प्राप्त है, किन्तु | लिए उन्हें २७०० साल लगते हैं, जिस कालावधि को अतिशयोक्त कालमर्यादाओं के निर्देश के कारण, ये सारी | 'सप्तर्षि चक्र' कहते है। नामावलियाँ अनैतिहासिक एवं कल्पनारम्य प्रतीत होती __ सप्तर्षिकाल एवं शक का निर्देश पौराणिक साहित्य हैं। इनमें से मत्स्य में प्राप्त नामावलि विभिन्न पाठभेदों के साथ नीचे दी गयी है:- १. श्वेत (भव, भुव, भवोद् में प्राप्त है (वायु. ९९.४१८-४२२; भा. १२.२. २६-३१, ब्रह्मांड. ३.७४.२३१-२४०, विष्णु. ४.२४. भुव); २. नीललोहित (तप); ३. वामदेव (भव ); | ३३; मत्स्य, २७३.३९-४४)। इस शक को 'शक४. रथंतर (रंभ); ५. रौरव (रौक्म, ऋतु); ६. देव काल' एवं 'लौकिक काल' नामांतर भी प्राप्त थे। (प्राण, ऋतु ); ७. बृहत् (वह्नि); ८. कंदर्प (हव्यवा काश्मीर के ज्योतिर्विदों के अनुसार, कलिवर्ष २७ वाहन); ९. सद्य (सावित्र); १०. ईशान (भुव, शुद्ध); चैत्रशुक्ल प्रतिपदा के दिन इस शक का प्रारंभ हुआ था। ११. तम (ध्यान, उशिक); १२. सारस्वत (कुशिक); इसी कारण इस शक में क्रमशः ४६ एवं ६५ मिलाने से १३. उदान (गंधर्व); १४. गरुड (ऋषभ ); १५. कौम (षडज् ); १६, नारसिंह ( मार्जालिय, मजालिय) १७. परंपरागत शकवर्ष एवं ई. स. वर्ष पाया जाता है। अल्बेरुनी के ग्रंथ में ( शक ९५२) 'सप्तर्षि शक' का समान-(समाधि, मध्यम ); १८. आग्नेय (वैराजक; १९.. निर्देश प्राप्त है, जहाँ उस समय यह शक मुलतान, सोम-( निषाद); २०.मानव (भावन, पंचम); २१. तत्पुरुष पेशावर आदि उत्तर पश्चिमी भारत में प्रचलित होने का (सुप्तमाली, मेघवाहन ) २२. वैकुंठ (चिंतक, चैत्रक); निर्देश प्राप्त है। आधुनिक काल में यह शक काश्मीर, २३. लक्ष्मी (अर्चि, आकूति ) २४. सावित्री (विज्ञाति, एवं उसके परवर्ति प्रदेश में प्रचलित है। सुविख्यात ज्ञान); २५. घोरकल्प (लक्ष्मी, मनस्, सुदर्श); २६. 'राजतरंगिणी' ग्रंथ में भी इसी शक का उपयोग किया वाराह (भावदर्श, दर्श); २७. वैराज (गौरी, बृहत् ); २८. गौरी (अंध, श्वेतलोहित ); २९. माहेश्वर (रक्त); | ३०. पितृ ( पीतवासस् ); ३१. सित (असित); ३२. __ भारतीय युद्ध का कालनिर्णय-प्रानीन भारतीय विश्वरूप (वायु. २१, लिंग. १.४, मत्स्य. २८९; स्कंद | इतिहास में भारतीय युद्ध एक ऐसी महत्त्वपूर्ण घटना है ७.१०५)। कि, जिसका कालनिर्णय करने से बहुत सारी घटनाएँ सुलभ - वसंतारंभकाल-ज्योतिर्विज्ञानीय तत्त्व का आधार | हो सकता है। ले कर प्राचीन वैदिक साहित्य का कालनिर्णय करने का | पुलकेशिन् (द्वितीय) के सातवीं शताब्दी के ऐहोल अद्वितीय प्रयत्न लोकमान्य तिलकजी ने किया। शिलालेख में भारतीय युद्ध का काल ३१०२ ई. पू. दिया उन्होंने प्रमाणित आधारों पर सिद्ध किया कि, जिस | गया है। सुविख्यात ज्योतिर्विद आर्यभट्ट के अनुसार समय कृत्तिका नक्षत्र में वसंतारंभ था, एवं उसी | कलियुग का प्रारंभ भी उसी समय तय किया गया है। नक्षत्र के आधार पर दिन-रात की गणना की जाती। किंतु पलीट के अनुसार, भारतीय युद्ध के कालनिर्णय थी, उस समय ब्राह्मण ग्रंथों का निर्माण हुआ था। उसी | की आर्यभट्ट की परंपरा काफी उत्तरकालीन एवं अनैतिप्रकार, वैदिक मंत्रसंहिताओं की रचना भी मृगशिरा हासिक है । वृद्धगर्ग, वराहमिहिर आदि अन्य ज्योतिर्विद गया है। ११७१
SR No.016121
Book TitleBharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Shastri Chitrav
PublisherBharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
Publication Year1964
Total Pages1228
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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