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________________ घटोत्कच प्राचीन चरित्रकोश घृतपृष्ठ भारतीययुद्ध में यह पांडवों के पक्ष में था। इसका रथ होने पर भी, यह अमानुष था। बलशाली राक्षस-पिशाच, आठ पहियों का तथा सौ अश्वों का था। इसके रथ पर बचपन में भी इसे थाम नहीं सकते थे। बाल्यकाल ही से गृध्रपक्षी का ध्वज था। विरूपाक्ष नामक राक्षस इसका इसका रूप उग्र था। जन्मतः यह अस्त्रविद्यापारंगत एवं सारथ्यकर्म करता था। यह हाथ में पौलस्त्य धनुष्य कामरूपधर था। पैदा होते ही, इसने माता पितरों के पैर रखता था (म. द्रो. १५०.१२-१४)। पकड़ लिए थे। द्रोण सेनापति थे। एक दिन रात्रि में युद्ध हुआ। घटोदर-रावण के पक्ष का एक राक्षस (वा. रा. कर्ण की वासवी शक्ति के कारण, अर्जुन की उससे युद्ध | उ. २७; म. स. ९. १४)। करने की हिम्मत नहीं हो रही थी। इस समय कृष्ण ने | २. पूतना देखिये। घटोत्कच का गौरव किया, तथा कहा, 'रात्रि की वेला | घंट--वसिष्ठकुल का एक ब्राह्मण । इसने बिल्वदल में युद्ध करने से तुम्हारी शक्ति प्रज्वलित हो उठती है, (बेलपत्र ) से शंकर की १०० वर्षों तक सेवा की । आगेअतः तुम महासमर करो।' इस प्रसंग में, इसके साथ | चलकर इसने देवल ऋषि की नातन की माँग की। यह युद्ध करने के लिए दुर्योधन ने बकबंधु अंलायुध तथा | कुरूप है, ऐसा पता लगने के कारण, उसने इसे अस्वीकार अलंबुष नामक दी दैत्यों को भेज दिया। इसने दोनों का | किया। तब इस ने उसका हरण कर उससे गांधर्व विवाह वध किया। अलंबुष का सिर काट लिया। उसे हाथ में ले | किया। उसके पिता ने इसे शाप दिया; परंतु नये कर यह दुर्योधन के सामने प्रस्तुत हुआ। घटोत्कच ने उससे | रिश्ते को याद कर, निशाचर याने राक्षस न हो कर उलूक कहा, 'रिक्तपाणिर्न पश्येत् राजानम् ।' अर्थात् , 'राजा | होगे तथा इंद्रद्युम्न की सहायता करने पर मुक्त होगे,' लोगों का दर्शन, खाली हाथों नही लेना चाहिये।' यों कह | ऐसा उःशाप दिया (स्कंद. १. २. ७)। कर इसने अलंबुध का सिर दुर्योधन के सामने फेंक दिया। घंटाकर्ण--शिव का एक गण | शंकर के नाम वा उपहासयुक्त शब्दों में, चिढ़ाते हुए इसने कहा, 'राजन् । गुणों के अतिरिक्त कृछ भी कानों को सुनने न मिले, चन्द पलों ही में मैं कर्ण के मस्तक का उपहार पेश करने | इसलिये यह कान को घंटा बांधता था । इसलिये इसका के लिए आता हूँ।' | नाम घंटाकर्ण हुआ। यह स्कंद का पार्षद था (म. श. यह समाचार सुन कर कर्ण भी एक बार थरी ४४. २२)। - उठा। बाध्य एवं अगतिक बन कर कर्ण ने इस पर घंटामुख--विभावसु देखिये। वासवी शक्ति का प्रयोग किया। उस प्राणहारक शस्ति घन-लंका का एक राक्षस (वा. रा. सु. ६)। को देख कर मरने के पहले घटोत्कच ने पर्वतप्राय धर्म तापस--सूक्तद्रष्टा (ऋ. १०.११४)। देह धारण की । शक्ति लगते ही, यह कौरवसेना पर जा घर्म सौर्य-मंत्रद्रष्टा (ऋ. १०. १८१.३)। गिरा । मृत्यु के उपरान्त भी, इसकी देह ने शत्रुदल का घुश्मेश्वर-शंकर का बारहवाँ अवतार। देवगिरि एक भाग कुचल कर पीस डाला। परिणामस्वरूप अर्जुन के पास वेरूल में है। घुश्म के संरक्षणार्थ यह वहाँ वासवी शक्ति से निर्भीक हुआ (म. द्रो. १४८-१५४)। आया (शिव. शत. ४२)। व्याघेश्वर इसका उपलिंग है मार्गशीर्ष कृष्ण एकादशी की मध्यरात्रि को इस की मृत्यु | (शिव. को टि. १)। हुई (भारतसावित्री)। घर्णिका-देवयानी की दायी का नाम (म. आ. घटोत्कच का रूप भयानक था। उसकी देह विशाल | ७३. २४)। थी । बाप से बेटा सवाई था। गंधमादन पर्वत का प्रसंग घृणि-मरीचिपुत्र (मरीचि देखिये)। इसका सबूत है । इसके अतिरिक्त, बुद्धि, प्रत्युत्पन्नमतित्व, २. (सू. इ.) धुंधुमार का पुत्र (पद्म. स. ८)। मातृपितृभक्ति तथा आनंदीवृत्ति आदि गुणों से इसका घंतकौशिक-पराशर्यायण का शिष्य । इसका शिष्य चरित्र विभूषित हुआ है। इसके नेत्र विद्रूप थे। कान कौशिकायनि (बृ. उ. २. ६.३; ४. ६. ३, २. ५. शंकु के आकार के थे। मुख बड़ा था। ओष्ठ आरक्तवर्ण २१, ४. ५. २७. माध्य.) के थे। दाढ़े तीक्ष्ण थीं। नासिका लंबी एवं सीना चौड़ा । २. विश्वामित्र देखिये। था। पिंडुलियाँ टेढीमेढी तथा मोटी थी। कुल मिला कर घृतपृष्ठ-(स्वा. प्रिय.) भागवतमतानुसार प्रियव्रत आकृति तथा आवाज़ खौफ़नाक थीं । इस का जनक मनुष्य | को बर्हिष्मती से उत्पन्न पुत्र । क्षीरोद से वेष्टित क्रौंचद्वीप १९९
SR No.016121
Book TitleBharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Shastri Chitrav
PublisherBharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
Publication Year1964
Total Pages1228
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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