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________________ वैशंपायन प्राचीन चरित्रकोश वैशंपायन __ याज्ञवल्क्य का तिरस्कार--विष्णु में वैशंपायन एवं निर्देश अनेक बार प्राप्त है, एवं महाभारत के प्रारंभ में इसके शिष्य याज्ञवल्क्य के बीच हुए संघर्ष का निर्देश उसका निर्देश निम्न शब्दों में किया गया हैप्राप्त है ( याज्ञवल्क्य देखिये)। अपने अन्य शिष्यों के नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् । समान, वैशंपायन ने याज्ञवल्क्य को भी कृष्णयजुर्वेद | देवी सरस्वतीं चैव ततो जयमुदीरयेत् । संहिता सिखायी थी। किन्तु संघर्ष के कारण यह याज्ञवल्क्य से अत्यंत क्रुद्ध हुआ, एवं इसने उसे कहा, 'मैं | 'भारत' ग्रन्थ का निर्माण--अपने गुरु व्यास के द्वारा ने तुम्हें जो वेद सिखाये है, उन्हें तुम वापस कर दो'। अपने कथन किये गये 'जय' ग्रन्थ के आधार पर वैशंपायन गुरु की आज्ञानुसार, याज्ञवल्क्य ने वैशंपायन से प्राप्त । ने 'भारत' नामक अपने सुविख्यात ग्रंथ की रचना की, वेदविद्या का वमन किया, जिसे वैशंपायन के अन्य | जिसमें कल चौबीस हज़ार श्लोक थे । इस प्रकार यह ग्रंथ . शिष्यों ने तित्तिर पक्षी बन कर पुनः उठा लिया। इसी व्यास के आद्य ग्रन्थ की अपेक्षा काफ़ी विस्तृत था, किन्तु कारण कृष्णयजुर्वेद को तैत्तिरीय' नाम प्राप्त हुआ | फिर मी महाभारत के प्रचलित संस्करण में उपलब्ध (म. शां. ३०६)। विविध आख्यान एवं उपाख्यान उसमें नहीं थे :__कृष्णयजुर्वेद का प्रसार--याज्ञवल्क्य के अतिरिक्त चतुर्विंशति-साहस्री चक्रे भारतसंहिताम् । इसके बाकी ८५ शिष्यों ने आगे चल करः कृष्ण यजुर्वेद उपाख्यानैर्विना तावत् भारतं प्रोच्यते बुधैः॥ . के प्रसारण का कार्य किया । भौगोलिक विभेदानुसार, इस शिष्यपरंपरा के उत्तर भारतीय, मध्य भारतीय एवं पूर्व (म. आ. ६१) भारतीय ऐसे तीन विभाग हुए, जिनका नेतृत्व क्रमशः भारत ग्रन्थ का कथन--स्वयं के द्वारा विरचित भारत श्यामाय नि, आसुरि एवं आलंबि नामक शिष्य करने लगे ग्रंथ का कथन, इसने सर्वप्रथम जनमेजय राजा के द्वारा. (ब्रह्मांड. २.३१.८-३०; वायु. ६१. ५-३०)। आगे | सर्यों की राजधानी तक्षशिला नगरी में किये गये सर्पसत्र . चल कर कृष्ण यजुर्वेद को 'चरक' नाम प्राप्त हुआ, | के समय किया। जिस कारण वैशंपायन के यह शिष्य 'चरकाध्वर्यु'। यह स्वयं जनमेज्य राजा का राजपुरोहित था, इसी अथवा 'तैत्तिरीय ' नाम से सुविख्यात हुए। कारण जनमेजय के द्वारा प्रार्थना किये जाने पर इसने । वैशंपायन के द्वारा प्रणीत कृष्णयजुर्वेद की ८५ शाखाओं | 'भारत' ग्रंथ का कथन किया। अपने इस ग्रंथ का वर्णन में से तैत्तिरीय, मैत्रायणी, कठ एवं कपिष्ठल शाखाएँ | करते समय इसने कहा, 'यह ग्रंथ हिमवत् पर्वत एवं केवल आज विद्यमान हैं, बाकी विनष्ट हो चुकी हैं। | सागर जैसा विशाल, एवं अनेक रत्नों से युक्त है। इसी महाभारत का कथन-वैशंपायन श्रीव्यास के केवल | कारण-- कृष्णयजुर्वेद-परंपरा का ही नहीं, बल्कि महाभारत-परंपरा धर्मे चार्थे च कामे च, मोक्षे च भरतर्षभ । का ही महत्त्वपूर्ण शिष्य था । इसी कारण महाभारत यदिहास्ति तदन्यत्र, यन्नेहास्ति न तत् क्वचित् । परंपरा में भी वैशंपायन एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण आचार्य (म. आ. ५६.३३. स्व. ५.३८)। माना जाता है। महाभारत से प्रतीत होता है कि, श्रीव्यास ने महा- (इस संसार में धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष पुरुषार्थों के भारत का स्वयं के द्वारा विरचित 'जय' नामक आद्य ग्रंथ | संबंध में जो भी ज्ञान उपलब्ध है, वह इस ग्रंथ में समाविष्ट वैशंपायन को ही सर्वप्रथम सुनाया था। व्यास के द्वारा किया गया है । इसी कारण यह कहना ठीक होगा कि, विरचित यह ग्रंथ केवल आठ हजार आठ सौ श्लोकों का | जो कुछ भी ज्ञानधन संसार में है, वह यहाँ उपस्थित है. छोटा ग्रंथ था, एवं उस के कथा का प्रतिपाद्य विषय | किंतु इस ग्रंथ में जो नहीं है, वह संसार में अन्यत्र प्राप्त पाण्डवों की विजय होने के कारण, उसे 'जय' नाम | होना असंभव है)। प्रदान किया गया था। - वैशंपायन कृत आस्तीक-पर्व--वैशंपायन के द्वारा __व्यास के द्वारा 'जय' ग्रंथ उत्तम इतिहास, अर्थशास्त्र, विरचित 'भारत' ग्रंथ में 'आस्तीक-पर्व' महत्त्वपूर्ण माना एवं मोक्षशास्त्र का ग्रंथ था, एवं पौरुष निर्माण की सभी जाता है, जहाँ अपनी ग्रंथरचना की पार्श्वभूमि वैशंपायन शिक्षाएँ उसमें अंतर्भूत थी। महाभारत में 'जय' ग्रंथ का | के द्वारा निवेदित की गयी है। यहाँ जनमेजय के सर्पसत्र
SR No.016121
Book TitleBharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Shastri Chitrav
PublisherBharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
Publication Year1964
Total Pages1228
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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