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________________ पितृवर्तिन प्राचीन चरित्रकोश पिप्पल पूर्वोक्त शाप के ही कारण, स्वतंत्र (पितृवर्तिन् ) के | के फलस्वरुप ही, इन्हें उत्तरोत्तर उच्च जन्म की प्राप्ति अन्य दो भाई छिद्रदर्शन तथा सुनेत्र ने पांचाल (पांचाल्य, होती रही, तथा अन्त में इन्हें मोक्ष प्राप्त हुआ। मोक्ष पांचिक ) एवं कंडरिक नाम से वत्स तथा बाभ्रव्य प्राप्ति के पूर्व, इन्हें जो योनि प्राप्त हुयी, एवं इन्हें जो वंश में जन्म लिया एवं वे ब्रह्मदत्त के मित्र बने । इनके नामांतर मिलते रहे, वे इनके पूर्वसंचित पुण्यकर्मों के नाम पद्मपुराण में 'पुंडलीक' तथा 'सुबालक,' तथा | कारण ही प्राप्त हुए थे। किन्तु पुराणों में इनके सारे मत्स्यपुराण में 'कंडरीक' तथा 'सुबालक' दिये गये है, जन्मों का, एवं इन्हे प्राप्त हुए सारे नामों की पूरी जानकारी एवं उन्हे ब्रह्मदत्त के मंत्री का पुत्र कहा गया है। प्राप्त नहीं है । सभी पुराणों में इस बारे में एकवाक्यता उन दो भाइयों में से पांचाल (कवि) ऋग्वेद में प्रवीण | भी नहीं है तथा कहीं कहीं कथनों को टोटाया था, तथा उसने ब्रह्मदत्त का आचार्यत्व स्वीकार किया। है। पश्चात् पांचाल ने वेदों का क्रम लगाया तथा 'शिक्षा' पितृवर्तिन् की उपर्युक्त कथा मार्कंडेय ऋषि ने नामक ग्रन्थ का निर्माण कर के, 'योगाचाय' की पदवी प्राप्त भीष्माचार्य को सुनायी थी। श्राद्धकर्म के समय, इन की । कण्डरीक सामवेद तथा यजुर्वेद में निष्णात था, तथा | कौशिकपुत्रों के पहले निर्दिष्ट किये श्लोकों का पठन किया उसने ब्रह्मदत्त का छंदोगत्व तथा अध्वयुत्व स्वाकार जाता है ( ह.बं १.२१.२४; मत्स्य. २०-२१, पद्म, स. किया। १०)। बचे हुये चारों बंधुओं ने एक दरिद्री ब्राह्मण के घर में, पितृवर्धन-- (सो.) एक राजा। भविष्य के '' ध्रतिमान् , क्षुमनस् , विद्वान् तथा सत्यदर्शी नामों से जन्म अनुसार श्राद्धदेव का पुत्र था। लिया । मत्स्यपुराण में, उनके नाम धृतिमान् , तत्वदर्शी, विद्याचण्ड तथा तपोत्सुक प्राप्त है । बाद में, उन ब्राह्मण- पिनाकिन्-- ग्यारह रुद्रों में से एक (म. आ. ६०. पुत्रों ने अरण्य में तपश्चर्या करने का निश्चय किया, एवं | २; मं. शां. २०१.१९)। यह ब्रह्माजी के पौत्र, तथा । उस कार्य के लिये, उन्होंने अपने वृद्ध पिता से अनुमति स्थाणु का पुत्र था। अर्जुन के जन्मकाल में यह उपस्थित माँगी । किंतु वृद्ध पिता ने, उसे इन्कार कर दिया। तब | था (म, आ. ११४.५७)। . इन्होंने अपने पिता की उपजीविका के लिये ब्रह्मदत्त । २. भगवान् शिव का नामांतर । भगवान शिव का राजा के पास जाने के लिये कहा। वहाँ निम्न-लिखित | पिनाक नामक धनुष था, जिसके कारण उसे पिनाकिन् श्लोक कहने के लिये कह कर, वे बंधु स्वयं अरण्य में नाम प्राप्त हुआ। इसने त्रिपुरासुर को भस्म कर, उससे चले गयेः शशमण्डल का राज्य जीत लिया (भवि. प्रति. ३.८) सप्तव्याधा दशार्णेषु, मृगाः कालिंजरे गिरौ ॥ महाभारत के अनुसार, भगवान् शंकर का त्रिशूल चक्रवाकाः शरद्वीपे, हंसाः सरसि मानसे ॥१॥ उसके पाणि (हाथ ) से आनत होकर (मुड़कर ) धनुतेऽभिजाताः कुरुक्षेत्रे, ब्राह्मणा वेदपारगाः ॥ षाकृति बन गया। इस कारण, उस धनुष को 'पिनाक' प्रस्थिता दीर्घमध्वान, यूर्ग किमयसीदथ ॥२॥ एवं उसके धारण करनेवाले शिव को 'पिनाकिन् । भिन्न भिन्न स्थानों में ये श्लोक भिन्न भिन्न तरह से नाम प्राप्त हुआ (म. शां. २७८.१८ (२८९.१७-१८ दिये गये है। किंतु सर्वत्र उनका अर्थ एक ही है। नीलकंठ टीका)। जैसे ही ब्राह्मण ने ये श्लोक ब्रह्मदत्त के यहाँ जा कर पिप्पल-- मित्र नामक आदित्य एवं रेवती के तीन कहे, वैसे ही ब्रह्मदत्त, पांचाल्य, तथा कण्डरीक को अपने | पुत्रा म स कानष्ठ पुत्र ( भ. ६. १८. ६)। पूर्वजन्म का स्मरण हो आया, तथा वे मूञ्छित हो कर २. एक ब्राह्मणभक्षक राक्षस, जो अगस्त्य ऋषि के गिर पडे । बाद में, ब्रह्मदत्त ने उस ब्राह्मण को विपुल धन | द्वादशवर्षीय सत्र के समय लोगों को त्रस्त करता था । दिया, तथा विष्वक्सेन का राज्याभिषेक कर, अपनी । ३. एक कश्यप कुलोत्पन्न ब्राह्मण । उग्र तपस्या के कारण पत्नी तथा प्रधान के साथ तपश्चर्या करने चला गया। इसका अहंकार काफ़ी बद गया था। पर, एक बार इन सात बन्धुओं ने जो पित्रार्चन किया, उसके कारण | माता-पिता की सेवा कर के सर्ववश्यता प्राप्त करनेवाले इन्हें अगले सभी जन्मों में अपने पूर्व ब्राह्मण-जन्म का | सुकर्मन् ऋषि को देखकर इसका अहंकार जाता रहा (पा. ज्ञान रहा, एवं ये उग्रतम तपस्या करते रहे । इस तपस्या । भू. ६१-६३, ८४; सुकर्मन् देखिये)। . ४२४
SR No.016121
Book TitleBharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Shastri Chitrav
PublisherBharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
Publication Year1964
Total Pages1228
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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