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________________ " पिप्पलाद पिप्पलाद-- उपनिषद्कालीन एक महान् ऋषि एवं अथर्व वेद का सर्वप्रथम संकलनकर्ता यह व्यास की अर्थवन् शिष्य परम्परा में से देवदर्श ( वेदस्पर्श ) का शिष्य था ( व्यास देखिये, ब्रहा. उ. १) । पिप्पलाद का । शब्दार्थ, पीपल के फल खाकर जीनेवाला ( पिप्पल+अद् ) होता है। अथर्ववेद की पिप्पलाद नामक एक शाखा उपलब्ध है । इस शाखा का प्रवर्तक शायद यही होगा । इसके माता-पिता के नाम के बारे में, भिन्न-भिन्न जानकारी प्राप्त है। दधीचि ऋषि को प्रातिथेयी ( वटवा अथवा गभस्तिनी) नामक पत्नी से यह उत्पन्न हुआ । किन्तु कई ग्रंथों में इसके माता का नाम सुवची अथवा सुभद्रा दिया गया है। इनमें से सुभद्रा दधीचि ऋषि की दासी थी । सम्भवतः यह दधीचि का दासीपुत्र था । अन्य कई ग्रंथों में इसे याज्ञवल्क्य एवं उसकी बहन का पुत्र कहा गया है | फिर भी यह दधीचि ऋषि के पुत्र के रूप यें विख्यात है | प्राचीन चरित्रकोश पिप्पलाद मानकर उनसे बदला लेने के लिए इसने शंकर की आराधना की तथा एक कृत्या का निर्माण करके उसे देवों पर छोड़ा। यह देखकर शंकर ने मध्यस्थ होकर देवों तथा इसके बीच मित्रता स्थापित करायी। बाद में, अपनी माता-पिता को देखने की इच्छा उत्पन्न होने के कारण, देवों ने स्वर्ग में इसे दधीचि के पास पहुँचाया। दधीचि इसे देखकर प्रसन्न हुआ तथा इससे विवाह करने के लिए आग्रह किया । स्वर्ग से वापस आकर इसने गौतम की कन्या से विवाह किया (ब्रा. ११०.२२५ ) । दधीचि की मृत्यु के समय उसकी पत्नी प्रातिथेयी गर्मी थी। अपने पति की मृत्यु का समाचार सुनकर उसने उदरविदारण कर अपना गर्भ बाहर निकाला तथा उसे पीपल वृक्ष के नीचे रखकर दधीचि के शव के साथ सती हो गयी। उस गर्म की रक्षा पीपल वृक्ष ने की। इस "कारण इस बालक को पिप्पलाद नाम प्राप्त हुआ । पशु-पक्षियों ने इसकी रक्षा की, तथा सोम ने इसे सारी विद्याओं में पारंगत कराया। मायकाल में मिले हुए कष्टों का कारण, शनि ग्रह को मानकर, इसने उसे नीचे गिराया। त्रस्त होकर शनि इसकी शरण में आया। इसने शनिग्रह को इस शर्त पर छोड़ा कि यह बारह वर्ष से कम आयु वाले बालकों को तकलीफ न दे। कई ग्रन्थों में बारह वर्ष के स्थान पर सोलह वर्ष का निर्देश भी प्राप्त है। इसीलिये आज भी शनि की पीड़ा से छुटकारा पाने के लिए पिप्पलाद, गाधि एवं कौशिक ऋषियों का स्मरण किया जाता है ( शिव. शत. २४-२५ ) । एकवार, जब यह पुष्पभद्रा नदी में स्नान करने जा रहा था, तत्र वहाँ अनरण्य राजा की कन्या पद्मा को देखकर इसने उसकी माँग की शापभय से अनरण्य राजा ने अपनी कन्या इसे प्रदान की। जिससे इसे दस पुत्र हुये ( शिव. शत. २४-२५ ) । दधीचि के देहत्याग के स्थान पर कामधेनु ने अपनी दुग्धधारा छोड़ी। इसीसे इस स्थान को 'दुश्वेश्वर' कहते थे यहाँ पिप्पलाद तपश्चर्या करता था। एकचार जब यह अपनी तरस्या में निमन था तब अपनी तपस्या में निमग्न था तब वहाँ कोलासुर आकर इसका ध्यानभंग करने के हेतु इसे पीड़ित करने लगा। उससे कोलार का बच कराया। इसी से इस स्थान को तत्काल, इसके पुत्र कहोड़ ने एक कृत्या का निर्माण करके 'पिप्पलादतीर्थ' नाम प्राप्त हुआ (पद्म. उ. १५५, १५७ ) स्थान को 'पिप्पलाद तीर्थ कहते हैं (स्कन्द. ५.२.४२) । नर्मदा तट पर इसने तपस्या की थी। इसी से उस - ' शरशय्या पर पडे हुए भीष्म के पास अन्य ऋषिगणों के साथ यह भी वहाँ भाया था ( म. शा. ४०.६६ पंक्ति ६) । एक बार अपने पिता पर क्रोधित होकर इसने एक कृत्या का निर्माण कर, उसे याज्ञवल्क्य पर छोड़ा। याज्ञवल्क्य शंकर की शरण में गया। इस कृत्या का नाश किया तथा यशवस्य एवं पिप्पलाद में मित्रता स्थापित करायी ( स्कन्द. ५.३. ४२ ) । पैप्पलाद संहिता -- अथर्ववेद की कुल दो संहितायें उपलब्ध हैं। उनमें से एक की रचना शौनक ने की है, एवं दूसरी का रचयिता पिप्पलाद है। पिप्पलाद विरचित अथर्ववेद की संहिता 'पैस्थाद संहिता' नाम से प्रसिद्ध है। यह संहिता बीस काण्डों की है, तथा उस संहिता का प्रथम मंत्र 'शन्नो देवी : ' है। पतंजलि के व्याकरण महाभाष्य में एवं ब्रह्मयज्ञान्तर्गत तर्पण में, इसी मंत्र का उद्धरण प्राप्त हैं। व्हिटने के अनुसार, 'वैप्पलाद संहिता' में 'शीनक संहिता' की अपेक्षा, 'ब्राह्मण पाठ अधिक है, तथा अभिचारादि कर्म भी अधिक दिये गये हैं । (व्हिटने कृत अथर्ववेद अनुवाद - प्रस्तावना पृ. ८० ) । यही कथा ब्रह्मपुराण में कुछ अलग ढंग से दी गयी है । अपनी माता-पिता की मृत्यु का कारण देवताओं को । प्रा. प. ५४ ] ४२५
SR No.016121
Book TitleBharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Shastri Chitrav
PublisherBharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
Publication Year1964
Total Pages1228
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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