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धौम्य
प्राचीन चरित्रकोश
धौम्य
धौम्य-देवल ऋषि का कनिष्ठ भ्राता, एवं पांडवों का | वह बोला, 'आप वन में न आयें । मैं भला वहाँ युरोहित । यह अपोद ऋषि का पुत्र था, एवं गंगानदी के आप को क्या दे सकता हूँ ? ' फिर धौम्य ने युधिष्ठिर को तट पर, उत्कोचक तीर्थ में इसका आश्रम था (म. आ. | सूर्योपासना के लिये प्रेरणा दी (म. व. ३.४-१२), एवं १७४.६ )। इसके पिता ने अन्नग्रहण वर्ण्य कर, केवल | उसे सूर्य के 'अष्टोत्तरशत' नामों का वर्णन भी बताया पानी पी कर ही सारा जीवन व्यतीत किया। उस कारण, (म. व. ३.१७-२९)। धौम्य ने युधिष्ठिर से कहा, 'हे उसे 'अपोद' नाम प्राप्त हुआ। अपोद ऋषि का पुत्र | राजन् , तुम घबराओ नहीं । तुम सूर्य का अनुष्ठान करो। होने के कारण, धौम्य को 'आपोद' यह पैतृक नाम प्राप्त | सूर्य प्रसन्न हो कर, तुम्हारी चिन्ता दूर करेगा। हुआ (म. आ. ३.१९)। इसे 'अग्निवेश्य' भी कहते धौम्य के कथनानुसार युधिष्ठिर ने सूर्य की स्तुति की। थे (म. आश्व. ६३.९)।
उससे प्रसन्न हो कर, सूर्यनारायण ने उसे 'अक्षयपात्र' चित्ररथ गंधर्व की मध्यस्थता के कारण, धौम्य ऋषि प्रदान किया, एवं कहा, 'यह पात्र तुम द्रौपदी के पास दे
दो । उससे वनवास में तुम्हे अन्न की कमी कभी भी अर्जन अपने भाईयों के साथ द्रौपदी स्वयंवर के लिये जा | महसूस नहीं होगी। फिर धर्म ने वह पात्र द्रौपदी के पास रहा था। उस वक्त, मार्ग में उसे चित्ररथ गंधर्व मिला। | दे दिया (म. व. ४; द्रौपदी देखिये)। उसने अर्जुन से कहा, 'पुरोहित के सिवा राजा ने कहीं पांडवों के वनवासगमन के बाद, अर्जुन अस्त्रप्राप्ति के भी नहीं जाना चाहिये । देवल मुनि का छोटा भाई धौम्य | हेतु इन्द्रलोक चला गया। अर्जुन के जाने से युधिष्ठिर उत्कोचक तीर्थ पर तपश्चर्या कर रहा है । उसे तुम अपना | अत्यंत चिंताग्रस्त हो गया। फिर धौम्य ने उसे भिन्नपुरोहित बना लो'। फिर अर्जुन ने धौम्य से प्रार्थना | | भिन्न तीर्थो, देशों, पर्वतों, एवं प्रदेशों के वर्णन कर, उसे अपना पुरोहित बना लिया. (म. आ. १७४. | बताये, एवं कहा, 'तुम तीर्थयात्रा करो' । उससे तुम्हारे,
अंतःकरण को शांति मिलेगी' (म. व. ८४-८८)। • पांडवों का पौरोहित्य स्वीकारने के बाद, धौम्य ऋषि वनवास में जयद्रथ राजा ने द्रौपदी का अपहरण करने पांडवों के परिवार में रहने लगा (म. स. २.७ ) । पांडवों | का प्रयत्न किया। उस वक्त धौम्य ने जयद्रथ को फटकारा, के घर के सारे धर्मकृत्य भी, इसी के हाथों से होने | एवं द्रौपदी की रक्षा करने का प्रयत्न किया (म. व. २५२. लगे। पांडव एवं द्रौपदी का विवाह तय होने पर, उनका | २५-२६)। * विवाहकार्य इसीने संपन्न किया । उस कार्य के लिये, इसने पांडवों के वनवास के बारह वर्ष के काल में, धौम्य
वेदी पर प्रज्वलित अग्नि की स्थापना कर के, उस में ऋषि अखंड उनके साथ ही था। पांडवों के अमिहोत्र'मंत्रों द्वारा आहुति दी, एवं युधिष्ठिर तथा द्रौपदी का गठ- रक्षण की जिम्मावारी धौम्य ऋषि पर थी। वह इसने बंधन कर दिया। पश्चात् उन दोनों का पाणिग्रहण करा | अच्छी तरह से निभायी (म. व. ५. १३९)। वनवास कर, उनसे अग्नि की परिक्रमा करवायी, एवं अन्य समाप्त हो कर अज्ञातवास प्रारंभ होने पर, युधिष्ठिर ने शास्त्रोक्त विधियों का अनुष्ठान करवाया। इसी प्रकार | बडे ही दुख से धौम्य से कहा, 'अज्ञातवास के काल में क्रमशः सभी पांडवों का विवाह इसने द्रौपदी के साथ | हम आपके साथ न रह सकेंगे । इसलिये हमें बिदा कराया (म. आ. १९०.१०-१२)।
कीजिये। पांडवों के सारे पुत्रों के उपनयनादि संस्कार | उस समय धौम्य ने युधिष्ठिर को अत्यंत मौल्यवान् धौम्य ने ही कराये थे (म, आदि. २२०.८७)। | उपदेश किया, एवं युधिष्ठिर की सांत्वना की । धौम्य ने युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में धौम्य ' होता' बना था (म. | कहा, 'भाग्यचक्र की उलटी तेढी गती से देव भी बच स. ३०.३५)। युधिष्ठिर को 'अर्धराज्याभिषेक' भी । न सके, फिर पांडव तो मानव ही है' । अज्ञातवास काल धौम्य ने ही किया था (म. स. ४९.१०)।
में विराट के राजदरबार में किस तरह रहना चाहिये, - पांडवों के वनगमन के समय, महर्षि धौम्य हाथ में | इसका भी बहुमूल्य उपदेश धौम्य ने युधिष्ठिर को किया कुश ले कर, यमसाम एवं रुद्रसाम का गान करता हुआ, . (म. वि. ४.६-४३)। फिर पांडवों के अग्निहोत्र का अग्नि वनगमन के लिये उद्युक्त हुआ (म. स. ७१.७)। इसे | को प्रज्वलित कर, धौम्य ने उनकी समृद्धि, वृद्धि. उस अवस्था में देख कर, युधिष्ठिर को अत्यंत दुख हुआ। राज्यलाभ तथा भूलोक-विजय के लिये, वेदमंत्र पढ़ कर