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संवरण
प्राचीन चरित्रकोश
संशती
परिवार--अपनी पत्नी तपती से इसे कुरु नामक पुत्र | यहाँ तक कि, बृहस्पति के द्वारा अधुरा छोड़ा गया मरुत्त उत्पन्न हुआ, जो आगे चल कर चक्रवर्ति सम्राट् बना। राजा का यज्ञ भी इसने यमुना नदी के किनारे 'पृक्षाव
२. एक ऋषि, जो ध्वन्य लक्ष्मण्य नामक राजा का तरणतीर्थ ' में यशस्वी प्रकार से पूरा किया ( म. शां. पुरोहित था (ऋ. ५.३३.१०)।
२९.१७)। मरुत्त के साथ इसका स्नेहसंबंध होने के अन्य संवरण प्राजापत्य--एक वैदिक सूक्तद्रष्टा (ऋ. ५. | निर्देश भी प्राप्त हैं (म. आश्च. ६-७)। ३३-३४)।
देवताओं पर प्रभाव--यह महान् तपनी था, संवर्गजित् लामकाबन-एक आचार्य, जो शाकदास | एवं जिस स्थान पर इसने तपस्या की थी, वह आगे चल भाडितायन नामक आचार्य का शिष्य, एवं गातु गौतम | कर ' संवर्तवापी' नाम से सुविख्यात हुआ (म. व. ८३. नामक आचार्य का गुरु था (वं. बा.२)।
२८)। इसकी अत्यधिक तपस्या के कारण समस्त देवता संवर्त-एक सुविख्यात स्मृतिकार, जिसका निर्देश भी इसके आधीन रहते थे। याज्ञवल्क्य के द्वारा निर्दिष्ट स्मृतिकारों की नामावलि में मरुत्त के यज्ञ के लिए सुवर्ण की आवश्यकता होने पर, प्राप्त है।
इसने हिमालय के सुवर्णमय मुंजवत् पर्वत से विपुल सुवर्ण संवत स्मृति--इसके द्वारा विरचित स्मृति का निर्देश शिवप्रसाद से प्राप्त किया (म. आश्व, ८ मार्क. १२६, आनंदाश्रम के 'स्मृतिसमुच्चय' में, जीवानंद के 'स्मृति- ११-१३)। इसने मरुत्त के यज्ञ के समय, साक्षात् अग्नि संग्रह' में, एवं वेंकटेश्वर प्रेस के 'स्मृतिसंग्रह' में प्राप्त देव को जलाने की धमकी दे दी थी (म. आश्व. २.१९) । है, जहाँ इसकी स्मृति में २३०,२२७, एवं २३२ इंद्र का वज्र इसने स्तंभित किया था, एवं इस प्रकार उसे श्लोक दिये गये हैं। इसकी उपलब्ध स्मृति में आचार मरुत्त के यज्ञ में आने पर विवश किया था(म. आश्व.१०)। एवं प्रायश्चित्त के संबंध में वचन प्राप्त है । इसके व्यवहार कुणप आख्यान--मरुत्त आविक्षित राजा ने इसकी सर्व संबंधी मतों के अनेकानेक उद्धरण विश्वरूपा दि टीकाग्रंथों प्रथम भेंट कैसे हुई, इस संबंध में एक चमत्कृतिपूर्ण कथन में प्राप्त है। इसकी छपी हुई स्मृति के कई श्लोक अपरार्क महाभारत में प्राप्त है । अपने यज्ञकार्य की पूर्ति के लिए में पुनरुद्धृत किये गये हैं।
मरुत्त आविशित इससे मिलना चाहता था, लेकिन इसके इसके द्वारा 'बृहत्संवर्त' एवं 'स्वल्पसंवर्त' नामक | उन्मत्त अवस्था में इधर उधर भटकते रहने के कारण, अन्य दो स्मृतिग्रंथों का निर्देश क्रमशः 'मिताक्षरा' में,
इसकी भेंट अत्यंत दुष्प्राप्य थी। एवं हरिनाथ के 'स्मृतिसार' में प्राप्त है (याज्ञ. ३. अंत में इसे ढूँढते मरुत्त काशीनगरी में आ पहुँचा । २६५, २८८)।
| वहाँ यह नमावस्था में इधर उधर घूमता था, एवं एक संवर्त आंगिरस-एक ऋषि, जो ब्रह्मपुत्र अंगिरस्
कुणप (शव) को काशीविश्वेश्वर मान कर उसकी पूजा ऋषि के तीन पुत्रों में से एक था । इसके अन्य दो भाइयों
करता था। रास्ते में 'कुणप' को देख कर, जो उसे वंदन के नाम बृहस्पति एवं उतथ्य थे (म. आ. ६०.४-५)।
करता हुआ उसके पीछे जायेगा, वही संवर्त ऋषि होगा, ऐसी महाभारत में अन्यत्र इसके भाइयों के नाम बृहस्पति,
धारणा इसके संबंध में का शिवासियों में प्रचलित थी। उतथ्य, पयस्य, शान्ति, घोर, विरूप एवं सुधन्वन् दिये
इसी धारणा के अनुसार, ममत्त राजा ने एक कुणप
ला कर उसे काशी के नगरद्वार में रख दिया, जिसका वंदन गये है (म. अनु. ८५.३०-३१)। इसे 'वीतहव्य' ला नामांतर भी प्राप्त था (यो. वा. ५.८२-९०)।
करने के लिए संवर्त वहाँ पहुँच गया (म. आश्व. ५)। वैदिक साहित्य में वैदिक मस्तानी शरशय्या पर पड़े हुए भीष्म से मिलने उपस्थित हुए यज्ञकर्ता के नाते ऋग्वेद में इसका निर्देश प्राप्त है (ऋ.१०. ऋषियों में यह एक था (म. शां. ४७.६६४; अन. १७२,८.५४.२)। ऐतरेय ब्राह्मण इसे मरुत्त आविक्षित राजा का पुरोहित कहा गया है (ऐ. ब्रा. ८.२१; मरुत्त
संवर्तक-एक नाग, जो कश्यप एवं कद्र के पुत्रों में आविक्षित ३. देखिये)।
एक था। बृहस्पति से ईर्ष्या-अपने भाई बृहस्पति से यह शुरु २. धर्मखावर्णि मन्वन्तर के पुत्रों में से एक । से ही अत्यंत ईर्ष्या रखता था, जिस कारण 'मरुत्त-बृहस्पति संशती--पवमान अग्नि की पत्नी, जिससे इसे सभ्य संघर्ष' में इसने सदा ही मरुत्त की ही सहायता की। एवं आवसथ्य नामक पुत्र उत्पन्न हुए थे (मत्स्य. ५१.१२)।
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२६.५)।