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शाकपूणि
प्राचीन चरित्रकोश
शाकल
इसका यह मनोगत जान कर वैदिक देवता इसके सम्मुख | सार, देवमित्र ( वेदमित्र, विदग्ध ) शाकल्य के निम्नउपस्थित हुए, एवं उन्होंने इसे ऋग्वेद की ऋचा (ऋ. १. लिखित पाँच शाखाप्रवर्तक शिष्य थे:-१. मुद्गल; २. १६४.२९), एवं उसका अर्थ कथन किया। इसीसे आगे गालव ३. शालीय, ४. वात्स्य, ५. शैशिरेय (शैशर, चल कर शाकपूणि ऋग्वेद का मंत्रार्थद्रष्टा आचार्य बन अथवा शैशिरी)। शाकल्य के यही पाँच शिष्य गया (नि. २.८)।
ऋग्वेद के शाखाप्रवर्तक आचार्य नाम से सुविख्यात हुए । शाकपूणि रथंतर--एक आचार्य, जो विष्णु के | इन आचार्यों के द्वारा प्रणीत ऋग्वेद की विभिन्न शाखाओं अनुसार, व्यास की ऋक शिष्यपरंपरा में से इंद्रप्रमति | की जानकारी निम्नप्रकार है :नामक आचार्य का शिष्य था। वायु में इसे 'रथीतर' (१) मुद्गल शाखा--इस शाखा की ऋग्वेद संहिता अथवा 'स्थांतर', तथा ब्रह्मांड में इसे 'रथीतर' कहा | ब्राह्मण आदि ग्रंथ अप्राप्य हैं। किंतु उस शाखा का गया है।
निर्देश 'प्रपंचहृदय' आदि ग्रंथों में प्राप्त हैं । इस शाखा शाकपूर्ण रथीतर (रथांतर)--एक आचार्य, जो के प्रवर्तक भाश्व मुद्गल नामक आचार्य का निर्देश वायु के अनुसार, व्यास की ऋशिष्यपरंपरा में से सत्यश्री ऋग्वेद एवं बृहद्देवता में प्राप्त है (ऋ.१०.१०२: बृहहे. नामक आचार्थ का शिष्य (व्यास पाराशर्य देखिये)। ६.४६)।
शाकंभरी-देवी का एक अवतार (देवी देखिये)। इसका वंशक्रम निम्नप्रकार माना जाता है :--भृम्यश्व शाकल--देवमित्र (वेदमित्र ) शाकल्य नामक -मुद्गल-वध्यश्व-दिवोदास । आचार्य के शिष्यों का सामूहिक नाम । इसी सामूहिक नाम | (२) गालव शाखा--इस शाखा के प्रवर्तक गालव के कारण इस शिष्यपरंपरा के आचार्य एवं उनके द्वाग
अथवा बाभ्रव्य पांचाल का निर्देश 'अष्टाध्यायी "ऋक्यासंस्कारित ऋग्वेद संहिता 'शाकल शाखान्तर्गत' मानी तिशाख्य', 'निरुक्त', बृहद्देवता' आदि ग्रंथों में प्राप्त जाती है। पाणिनि के अष्टाध्यायी में भी 'शाकल' शब्द | है। इस शाखा की संहिता,ब्राह्मण आदि ग्रंथ अप्राप्य हैं। का अर्थ भी 'शाकल्य का शिष्य' किया गया है ।
(३) शालीय शाखा--'काशिका वृत्ति' में शालीय ब्राह्मण ग्रंथों में--ऐतरेय ब्राह्मण में 'शाकल' शब्द का निर्देश एक शाखाप्रवर्तक आचार्य के नाते प्राप्त है। का अर्थ एक प्रकार का साँप ऐसा दिया गया है, जो | किंतु इस शाखा की संहिता आदि अप्राप्य है। शाकल्य के शिष्यों की ही व्यंजना प्रतीत होती है। वहाँ
(४) वात्स्य शाखा--पतंजलि के 'व्याकरणमहाअग्निष्टोम यज्ञ, रथचक्र के सदृश आदि एवं अंतविरहित
भाष्य' में वात्सी नामक आचार्य का निर्देश प्राप्त है (महा. होता है, इस कथन के लिए चक्राकार बैठे हुए 'शाकल'
४.२.१०४)। किंतु इस शाखा की संहिता आदि अप्राप्य की उपमा दी गयी है (ऐ. ब्रा. ३५)।
हैं (भा २ पृ. २९७)। व्याकरण ग्रंथों में--पाणिनि, कायायन, एवं पतंजलि के | (५) शैशिरेय शाखा-इस शाखा के संहिता का ग्रंथों में 'शाकल' का निर्देश प्राप्त है (पा. सू. ४.१.१८; | निर्देश ऋग्वेद अनुवालानुक्रमणी में प्राप्त है । शौनक के ३.१२८, ६.१.१२७), जहाँ सर्वत्र 'शाकल' का निर्देश | 'अनुवाकानुक्रमाणे' के अनुसार इस शाखा के संहिता एक सामूहिक नाम के नाते से प्राप्त है। ऋग्वेद प्रातिशाख्य में ८५ अनुवा क, १०१७ सूक्त, २००६ वर्ग एवं १०४१७ में 'शाकल' का निर्देश अनेक बार प्राप्त है (ऋ. प्रा. | मंत्र थे। ६५, ७६, ३९०, ४०३; ६३१; ६३३)।
इस शाखा का एक 'प्रातिशाख्य' भी उपलब्ध है. मॅक्स मूलर आदि पाश्चात्य वैदिक अभ्यासक, शाकल को | जो शौनक के द्वारा विरचित है। इस प्रातिशाख्य में एक आचार्य मानते है, जिसने शाकलशाखान्तर्गत प्रचलित वेदमित्र शाकल्य का निर्देश 'शाकल्यपिता' एवं 'शाकल्यऋकसंहिता का निर्माण किया था। किंतु यह अभिमत स्थविर' नाम से किया गया है (ऋ. प्रा. १.२२३, भारतीय वैदिक परंपरा के दृष्टि से भ्रममूलक प्रतीत होता १८५)। है; क्यों कि, जैसे पहले ही कहा जा चुका है, कि शाकल शौनक स्वयं शैशिरेय. शाखा का ही आचार्य था, नामक कोई भी आचार्य प्राचीन वैदिक परंपरा में नहीं था। जिस कारण उसके द्वारा विरचित प्रातिशाख्य ग्रंथ 'शाकल
शाकल शाखा--वर्तमानकाल में प्राप्त ऋग्वेद की प्रातिशाख्य' अथवा 'शैशिरेय प्रातिशाख्य' नाम से संहिता शाकल शाखा की मानी जाती है। वायु के अनु- | सुविख्यात था।
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