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शाकटायन
प्राचीन चरित्रकोश
शाकपूणि
अनुसार शकट इसके पिता का नाम न हो कर, इसके | के द्वारा प्रकाशित की गयी है, उसमें भी यही अभिमत पितामह का नाम था (पा. सू. ४.१.९६) । पाणिनि के | व्यक्त किया गया है। 'अष्टाध्यायी' में एवं शुक्लयजुर्वेद प्रातिशाख्य में इसे इसी ग्रंथ की श्वेतवनवा सिन् एवं नारायण के द्वारा काण्ववंशीय कहा गया है।
| लिखित टीकाएँ मद्रास विश्वविद्यालय के द्वारा प्रकाशित गुरुपरंपरा--व्याकरण साहित्य में इसे काण्व ऋषि का की गयी हैं। शिष्य कहा गया है ( शु. प्रातिशाख्य. ४.१२९)। किन्तु उणादि सूत्रों का रचयिता शाक्टायन न हो कर स्वयं शैशिरि शिक्षा के प्रारंभ में इसे शैशिरि परंपरा का पाणिनि ही था, ऐसा सिद्धान्त स्व. प्रा. का. बा. पाठक आचार्य कहा गया है, एवं इसे स्वयं शैशिरि ऋषि का के द्वारा प्रतिपादित किया गया है । शिष्य कहा गया है (शैशिरस्य तु शिष्यस्य शाकटायन दैवतशास्त्रज्ञ--बृहद्देवता में शाकटायन के अनेकानेक एव च )
दैवतशास्त्रविषयक उद्धरण प्राप्त हैं (बृहद्दे. २.१.६५; उणादि सूत्र-इस सुविख्यात व्याकरणशास्त्रीय ग्रंथ | ३.१५६, ४.१३८; ६.४३, ७.६९; ८.११.९०)। इससे का शाकटायन प्रणयिता माना जाता है। संस्कृत भाषा | प्रतीत होता है कि, शाकटायन के द्वारा 'दैवतशास्त्र' में पाये जानेवाले सर्व शब्द 'धातुसाधित' (धातुओं से विषयक कोई ग्रंथ की रचना की गयी होगी। किंतु इसके उत्पन्न ) हैं, ऐसा इसका अभिमत था। इसी दृष्टि से | इस ग्रंथ का नाम भी आज उपलब्ध नहीं है। लौकिक एवं वैदिक शब्दों का एवं पदों का अन्वाख्यान इसके अतिरिक्त शौनक के 'चतुराध्यायी' में (२. लगाने का सफल प्रयत्न इसने अपने 'उणादिसूत्र' में | २४); 'ऋतंत्र' में (१.१), एवं हेमाद्रि कृत किया है । वैदिक साहित्यान्तर्गत 'प्रातिशाख्य' ग्रंथों में | 'चतुर्वर्गचिंतामणि' में शाकटायन के अभिमतों का निर्देश इसके व्याकरणविषयक मतों का निर्देश अनेक बार प्राप्त प्राप्त है। हैं (ऋ. प्रा. १७.७४७; अ. प्रा. २.२४, शु. प्रा. ३.८; अन्य ग्रंथ--उपर्युक्त ग्रंथों के अतिरिक्त, इसके नाम ९, १२, ४.५, १२७; १८९)।
पर निम्नलिखित ग्रंथ भी प्राप्त हैं:- १. शाकटायन पाणिनि के सूत्रपाठ में 'उणादिसूत्रों का निर्देश कई स्मृति; २. शाकटायन-व्याकरण (C.C.)। . बार आता है, जिससे प्रतीत होता है कि, इसका यह ग्रंथ २. एक व्याकरणाचार्य, जिसका निर्देश अनंतभट्ट कृतपाणिनि से भी पूर्वकालीन था। पाणिनि के पूर्वकालीन 'शुक्लयजुर्वेद-प्रातिशाख्य भाष्य' में प्राप्त है । इस भाष्य चाक्रायण चाक्रवर्मण नामक आचार्य का निर्देश भी में इसे काण्व ऋषि का शिष्य कहा गया है । 'उणादिसूत्रों उणादिसूत्रों में प्राप्त है।
का रचयिता शाकटायन एवं यह संभवतः एक ही होंगे _ 'प्रकृति प्रत्यय ' कथन करने की पद्धति सर्वप्रथम | (शाकटायन १. देखिये)। इसने ही शुरु की, जिसका अनुकरण आगे चल कर ३. भृगकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । पाणिनि ने किया । फिर भी शब्दों की सिद्धि के संबंध में, ४. अंगिराकुलोत्पन्न एक गोत्रकार । पाणिनि अनेक बार अपने स्वयं का स्वतंत्र मत प्रतिपादन | शाकदास भाडितायन--एक आचार्य, जो विचक्षण करता हुआ प्रतीत होता है।
तांड्य नामक आचार्य का शिष्य था। इसके शिष्य का गार्ग्य को छोड़ कर समस्त 'नरुक्त आचार्य शाकटायन नाम संवर्गजित् लामकायन था (वं. बा. २)। को अपना आद्य आचार्य मानते हैं, एवं संस्कृत भाषा शाकधि-वसिष्ठकुलोत्पन्न गोत्रकार ऋषिगण । में प्राप्त समस्त नाम 'आख्यातज' समझते हैं। शाकपूणि-एक व्याः रणाचार्य, जिसके व्याकरणइसका उपसर्गविषयक एक मत 'बृहद्देवता' में पुनरुदत | विषयक अनेकानेक मतों का निर्देश यास्क के 'निरक्त' किया गया है (बृहदे. २.९ )।
में प्राप्त है (नि. ३.११, ६.१४, ८.५, १२.१९, १३. उणादि सूत्र के उपलब्ध संस्करण में 'मिहिर' | १०-११)। 'दीनार' 'लूप', आदि अनेकानेक बुद्धोत्तरकालीन | ऋग्वेदार्थ का ज्ञान--ऋग्वेद के मंत्रों के अर्थों का ज्ञान असंस्कृत शब्दों का निर्देश प्राप्त है। इससे प्रतीत होता शाकपूणि को किस प्रकार प्राप्त हुआ, इस संबंध में एक है कि, इस ग्रंथ का उपलब्ध संस्करण प्रक्षेपयुक्त है। कथा यास्क के निरुक्त में प्राप्त है। एक बार शाकपूणि को इस ग्रंथ की उज्ज्वलदत्त के द्वारा लिखित टीका ऑफेक्ट | वैदिक देवता के संबंध में ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा हुई।
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