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रथीतर
प्राचीन चरित्रकोश
रंतिदेव सांकृत्य
नाभाग से ले कर रथीतर तक का वंशक्रम वायु में निम्न- | श्रेष्ठ राजाओं की नामावली में प्राप्त है । एक श्रेष्ठ दानी प्रकार प्राप्त है:-नाभाग–अंबरीष-विरूप--पृषदश्व | राजा के नाते इसका निर्देश महाभारत में पुनः पुनः प्राप्त --रथीतर ( वायु. ८८.५-७)।
है (म. शां. २९. ११३-१२१)। स्थीतर ब्राह्मण-इसे कुल दो पुत्र थे, जो जन्म से
___मत्स्य, भागवत एवं विष्णु में इसे संकृति राजा का पुत्र क्षत्रिय हो कर भी आंगिरसवंशीय ब्राह्मणों में शामिल हो
कहा गया है, जिस कारण इसे 'सांकृत्य' पैतृक नाम गयें। इसी कारण रथीतर वंश के लोग रथीतर गोत्र के
प्राप्त हुआ था (म. अनु. १३७.६)। वायु के अनुसार क्षत्रिय ब्राह्मण बन गये (ब्रह्मांड. ३.६३.५-७), एवं
इसे त्रिवेद नामान्तर प्राप्त था। इसकी माता का नाम उनका निर्देश आंगिरस कह कर किये जाने लगा
| सत्कृति था। सुविख्यात पौरव राजा रंतिनार (मतिनार, (मत्स्य. १९६.३८)। रथीतर ब्राह्मण कौनसे समय
रंतिभार) से यह काफी उत्तरकालीन था। भरत से लेकर आंगिरस वंश में शामिल हुये यह कहना मुष्किल है,
रंतिदेव तक का वंशक्रम इस प्रकार है:--भरत-वितथकिन्तु बाद के पौराणिक साहित्य में उनका निर्देश प्रायः |
भुवमन्यु-नर-संकृति-रंतिदेव । इस वंशक्रम से प्रतीत अप्राप्य है। रथीतर का निर्देश अंगिरस कुल का गोत्रकार।
होता है कि, हस्तिनापुर का सुविख्यात सम्राट हस्तिन् एवं प्रवर नाम से किया गया है।
इसका चाचा था। __ रथीतरों की ब्रह्मक्षत्रिय बनने की यही कथा भागवत में विपरीत रूप में दी गयी है, जिसके अनुसार, रथीतर |
यज्ञपरायणता-इसका राज्य चर्मण्वती (आधुनिक राजा को पुत्र न होने के कारण, इसने अंगिरस् ऋषि से | चबल.
चंबल) नदी के किनारे था, एवं इसकी राजधानी दशार संतति उत्पन्न करायी। रथीतर राजा की यही संतान
नगरी में थी (मेघ. ४६-४८)। महाभारत में इसकी आगे चल कर रथीतर ब्राह्मण नाम से प्रसिद्ध हुयीं (भा.
दानशूरता का, एवं इसके द्वारा किये गये यज्ञयागों का ९.६.३)।
सविस्तर वर्णन प्राप्त है । अतिथियों की व्यवस्था के लिए २. बौधायन श्रौतसूत्र में निर्दिष्ट एक आचार्य (बौ.श्री. अपने राजगृह में इसने दो लाख पाकशास्त्रियों की नियक्ति २२.११; बृहद्दे. १.२६, ३.४० )।
की थी। इसके यज्ञ में बलिप्राणि बन स्वर्ग प्राप्ति हो, इस
उद्देश्य से यज्ञीय पशु स्वयं ही इसके यज्ञ में प्रवेश करते थे। रथीतर शाकपूर्ण-एक आचार्य, जो विष्णु के | अनुसार व्यास की ऋशिष्यपरंपरा में से सोमति एक बार एक गोयज्ञ करने के लिए इसके राज्य नामक आचार्य का शिष्य था। वायु एवं ब्रह्मांड में इसे | की गायों ने इसे विवश किया, किन्तु इनमें से एक सत्यश्री का शिष्य कहा गया है। विष्णु में इसे 'शाकपूर्ण माय आहुति देने के लिए नाराज़ दिखाई देने पर एवं ब्रह्मांड में 'शाकवैण' कहा गया है । वेबर के अनुसार, इसने अपना गोयज्ञ उसी क्षण बन्द कर दिया। यज्ञ में इन पाठभेदों में से 'शाकपूणि' पाठ ही सर्वाधिक स्वीकर- पशुओं की आहुति देने के बाद, उनकी बची हुयी चमडी णीय है। यह ऋग्वेद के तीन प्रमुख शाखाप्रवर्तक | यह नजीक ही स्थित नदी में फेंक देता था, जिस कारण आचार्यों में से एक माना जाता है। ऋग्वेद के अन्य दो | उस नदी को चर्मण्वती (चमड़ी को धारण करनेवाली) शाखाप्रवर्तक आचार्यों के नाम देवमित्र शाकल्य एवं | नाम प्राप्त हुआ था (म. अनु. १२३.१३)। बाष्कलि भारद्वाज थे।
दानशूरता-इसने अपनी सारी संपत्ति दान में दी थी इसने ऋग्वेद की तीन संहिताओं की एवं निरुक्त।
एव निरुक्त (म. द्रो. परि. १. क्र. ८. पंक्ति. ६९५)। इसका नियम की रचना की। इसके निम्नलिखित चार शिष्य थे:-- |
था कि, इसके यहाँ आया हुआ अतिथि विन्मुख न लौटे। केतन, दालकि, शतबलाक, एवं नैगम । विष्णु के अनुसार,
इसके इस नियम के कारण, इसके परिवार को काफी कष्ट निरुक्त ग्रंथ की रचना रथीतर के द्वारा न हो कर इसके
सहने पडते थे। एक बार तो ४८ दिनों तक इसके परिवार शिष्य नैगम ने की थी।
के सदस्यों को भूखा रहना पड़ा। अगले दिन यह अन्नरथोर्मि-प्रतर्दन देवों में से एक ।
ग्रहण करनेवाला ही था कि, कई शूद्र एवं चाण्डाल अतिथि रति-रन्तिनार राजा का नामान्तर (रन्तिनार देखिये)। इसके यहाँ आ पहूँचे । फिर उस दिन भी भूखा रह कर
रंतिदेव सांकृत्य--(सो. पूरु.) सुविख्यात भरत- | इसने अपने अपना सारा अन्न उन्हें दे दिया ( भा. ९. वंशीय सम्राट, जिसका निर्देश महाभारत में प्राप्त सोलह २१)। अपने गुरु वसिष्ठ को विधिवत् अर्घ्यदान करने के
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