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लेख
प्राचीन चरित्रकोश
लोपामुद्रा
लेख--रैवत मन्वन्तर का एक देवगण, जिसमें निम्न- इच्छा उत्पन्न हुई । किन्तु उसके योग्यता की कोई भी कन्या लिखित आठ देव शामिल थेः-ध्रुव, ध्रुवक्षिति, प्रघास, | उसे इस संसार में नज़र न आई । फिर अपनी पत्नी बनाने प्रचेतस्, बृहस्पति, मनोजव, महायशस् एवं युवनस् (ब्रह्मांड. | के लिए, उसने अपने तपोबल से एक सुंदर कन्या का २.३६.७६)।
निर्माण किया, एवं पुत्र के लिए तपस्या करनेवाले विदर्भराज २. चाक्षुष मन्वन्तर का एक देवगण ।
के हाथ में उसे दे दिया । यहीं कन्या लोपामुद्रा नाम से लेखक--सूर्य का एक प्रिय अनुचर (भवि. ब्राह्म. प्रसिद्ध हुई। ५६)।
___ अगस्त्य से विवाह-धीरे धीरे यह युवावस्था में लेश--(सो. क्षत्र.) एक राजा, जो विष्णु के अनुसार प्रविष्ट हुई । सौ दासियाँ एवं सौ कन्याएँ इसकी सेवा में सुनहोत्र राजा का पुत्र था। वायु में इसे 'शल' कहा | रहने लगी। अपने शील एवं सदाचार से यह अपने पिता गया है।
एवं स्वजनों को संतुष्ट रखती थी। लैद्राणि-अत्रिकुलोत्पन्न एक गोत्रकार |
एक दिन महर्षि अगस्त्य विदर्भराज के पास आये, लैंद्राणि-अंगिरमकुलोत्पन्न एक गोत्रकार। एवं उसने लोपामुद्रा से विवाह करने का अपना निश्चय
लोकाक्षि-एक शिवावतार, जो वाराहकल्पान्तर्गत | प्रकट किया। राजा इसका विवाह अगस्त्य जैसे तपस्वी के वैवस्वत मन्वन्तर में लोकाक्षि नामक वेदविभाग निर्माण | साथ नहीं करना चाहता था, किंतु महर्षि के शाप. के. करनेवाले मृत्यु नामक व्यास के साहय्यार्थ अवतीर्ण
डर से वह उसे इन्कार भी नहीं कर सकता था। अपने हुआ था । यह स्वयं निवृत्तिमार्गी था। इसके निम्न- | माता पिता को संकट में पड़ा देख, लोपामद्रा ने अपने लिखित चार शिष्य थे:-सुधामन, विरजस् , संजय, एवं
पिता से कहा, 'आप मुझे महर्षि के सेवा में दे कर अंडज (शिव. शत. ४-५)।
अपनी रक्षा करे । तब इसके पिता ने इसका विवाह - २. व्यास की सामशिष्य परंपरा में से लौगाक्षि नामक अगस्त्य ऋषि के साथ करा दिया। आचार्य का नामान्तर ।
विवाह के पश्चात् इसने अगस्त्य ऋषि की आज्ञा से ३. जटामालिन् नामक शिवावतार का एक शिष्य। | अपने राजवस्त्र एवं आभूषण उतार दिये, एवं वल्कल एवं .
लोपामुद्रा--अगस्त्य ऋषि की पत्नी, जो विदर्भ राजा मृगचर्म धारण किये । पश्चात् अगस्त्य इसे ले कर गंगाकी कन्या थी।
द्वार गया, एवं घोर तपस्या में संलग्न हुआ। यह पति एक वैदिक मंत्रद्रष्टी के नाते लोपामुद्रा का निर्देश के समान ही व्रत एवं आचार का पालन करने लगी. ऋग्वेद में प्राप्त है (ऋ. १.१७९.१-२)। उसी ग्रंथ में
एवं तप करनेवाले अगस्त्य की सेवा कर इसने उसे प्रसन्न अन्यत्र अगस्त्य ऋषि की पत्नी के नाते इसका निर्देश | किया । प्राप्त है, जहाँ यह उसके आलिंगन की इच्छा प्रकट करती | पुत्रप्राप्ति-पश्चात् इसका रूपयौवन,पवित्रता एवं इंद्रियहै (ऋ. १.१७९.४; बृहद्दे. ४.५७)।
निग्रह से प्रसन्न हो कर, अगत्स्य ऋषि ने इससे संभोग करने ___ जन्म--महाभारत में इसे वैदर्भ राजा की कन्या कहा । की इच्छा प्रकट की। तब इसने अगत्स्य से कहा, 'इस गया है, एवं दो स्थान पर इसके पिता का नाम विदर्भ- | तापसी वेष में एवं तपस्वी के पर्णशाला में नहीं, बल्कि मेरे राज निमि दिया गया है। पार्गिटर के अनुसार, पिता जैसे राजमहल में मैं आपसे समागम करना चाहती विदर्भराजवंश में निमि नामक कोई भी राजा न था, हूँ। फिर अगत्स्य ने अपने तपःसामर्थ्य से इल्वल से एवं लोपामद्रा के पिता का नाम निमि न हो कर भीम | विपुल संपत्ति ला कर इसे प्रदान की, एवं इसकी इच्छा के था, जो विदर्भदेश के क्रथ राजा का पुत्र था (पार्गि. | अनुसार, हजारों को जीतनेवाला एक महान् पराक्रमी १६८) । विदर्भराज की कन्या होने के कारण, इसे | पुत्र इसे प्रदान किया। वैदी नामान्तर प्राप्त था।
| इस पुत्र का गर्भ सात वर्षों तक इसके पेट में पलता इसके जन्म के संबंध में एक कल्पनारम्य कथा महा- रहा, एवं सात वर्ष बिताने पर वह अपनी माता के उदर भारत में प्राप्त है। अपने पितरों को मुक्ति प्रदान करने के | से बाहर निकला। अगत्त्य से उत्पन्न इसके पुत्र का लिए. अगस्त्य ऋषि के मन में एक बार विवाह करने की नाम दृढस्यु अथवा इध्मवाह था (म. व. ९४-९७)।
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