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परिशिष्ट १
जैन ग्रंथों में निर्दिष्ट श्री वर्धमान महावीर के समकालीन प्रमुख व्यक्ति
अजित केशि कंबलिन्--एक आचार्य, जो वर्धमान चन्द्र प्रद्योत-गवंती का एक राजा, जो वैशालि के महावीर के सात विरोधकों में से एक था। इसका तत्त्वज्ञान चेटक राजा की कन्या शिवा का पति था। इसे 'चन्द्रप्रद्योत 'उच्छेदवाद' नाम से सुविख्यात था। इसका तत्त्वज्ञान महासेन' नामांतर भी प्राप्त था । इसकी कन्या का नाम 'सबै नास्ति' इस आद्य तत्त्व पर आधारित था, एवं वासवदत्ता था, जो वत्सदेश के उदयन राजा को विवाह में दान, यज्ञ, पापपुण्य, स्वर्ग, दैवी माहात्म्य ये सारे मिथ्या दी गयी थी। कौशांबी के शतानीक राजा के मृगावती नामक है, ऐसा इसका अभिमत था। इसके अनुसार मानवीय पत्नी का यह हरण : करना चाहता था। किन्तु वर्धमान शरीर, चार मूलद्रव्यों से बना हुआ था, जिसमें मृत्यु के महावीर ने इसे इस पापी हेतु से परावृत्त किया। यह स्वयं पश्चात् वह विलीन होता है। इसी कारण, मृत्यु के पश्चात् जैनधर्मीय था, एवं इसने अपनी आठो ही पत्नियों को आत्मा को सद्गति या दुर्गति प्राप्त होने का वर्णन यह जैन धर्म की दीक्षा दी थी। सरासर कल्पनारम्य एवं झूट मानता था (सूय. १.१.१. त्रिशला-वर्धमान महावीर की माता, जो लिच्छवी ११-१२)
देश के चेटक राजा की बहन थी। • . इंद्रभूति गौतम---महावीर का सर्वप्रथम शिष्य। नंद वच्छ--आजीवक सांप्रदायों के पूर्वाचार्यों में से . किस संकिच्च--आजीवक सांप्रदाय के पूर्वाचार्यो एक (गोशाल मखलिपुत्त देखिये)। . में से एक (गोशाल मंखलीपुत्त देखिये)।
_ निगंठ नातपुत्त-जैन धर्मसांप्रदाय के संस्थापक वर्ध. . गोशाल मंखलीपुत्त--एक आचार्य, जो आजीवक
| आजावक मान महावीर का नामांतर (महावीर वर्धमान देखिये)। (नन ) सांप्रदाय के प्रवर्तकों में से एक था। पाली सूत्रों में इसे 'मखली गोशालो' कहा गया है । इसके द्वारा प्रणीत |
नेमिनाथ--जैनों का बाइसवाँ तीर्थकर, जो कृष्ण का तत्त्वज्ञान 'संसार विशुद्धि' नाम से सुविख्यात है । इसके
चचेरा भाई था। वर्तमानकालीन जैन धर्म के पुनरुत्थान पूर्वाचार्यों में नंद वच्च, किश संकिच्छ ये दो आचार्य
का यह आद्य जनक माना जाता है, जिसकी परंपरा
आगे चल कर पार्श्वनाथ एवं वर्धमान महावीर ने चलायी। प्रमुख थे (मझिम. ३६, ७६)। _ 'संसार विशुद्धि तत्वज्ञान-इसके द्वारा प्रणीत इस शूरसेन देश के शौरिपुर नामक नगरी में इसका जन्म तत्त्वज्ञान के अनुसार, हर एक प्राणिमात्र के लिए संसार | हुआ.। बाल्यावस्था में ही यह शौरिपुर का त्याग कर के नित्य एवं अपरिहार्य है, एवं इस संसारचक्र से कोई भी द्वारका नगरी आ पहुंचा। द्वारका में कृष्ण ने प्रवृत्ति का प्राणि मुक्ति नहीं पा सकता।
मार्ग अपनाया, एवं इसने निवृत्ति का । पश्चिम एवं दक्षिण महाभारतादि ग्रंथों में निर्दिष्ट मंकि नामक आचार्य यही | भारत में इसने जैन धर्म की प्रतिष्ठापना की, जहाँ प्राप्त माना जाता है (मंकि देखिये)।
तीर्थंकरों की प्रतिमा में इसकी प्रतिमाएं सर्वाधिक संख्या गोष्ठा माहिल-वर्धमान महावीर के प्रतिस्पर्धियों में
में पायी जाती हैं। से एक । वर्धमान के सात पाखंडी प्रतिस्पर्धियों में इसका काठियावाड में स्थित गिरनार (ऊर्जयन्त ) पर्वत में समावेश किया जाता था।
इसका निर्वाण हुआ, जहाँ इसके नाम का तीर्थस्थान आज १९१७