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मुचुकुंद
राज्य देना चाहा, किन्तु इसने कहा, 'मैं अपने बाहुबल से पृथ्वी को जीत कर उस पर राज्य करूंगा ।
प्राचीन चरित्रकोश
कालयवन का वध - कालयवन नामक राक्षस एवं श्रीकृष्ण से संबंधित मुचुकुंद राजा की एक कथा पद्म, मा विष्णु, वायु आदि पुराणों में, एवं हरिवंश में प्राप्त है । उस कथा में इसके द्वारा कालयवन राक्षस का वध करने का निर्देश प्राप्त है। किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से यह कथा कालविपर्यस्त प्रतीत होती है ?
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एक बार देवासुर संग्राम में, देस्यों के विरुद्ध लड़ने के लिए देवों ने मुचुकुंद की सहाय्यता की थी। उस युद्ध में देवों की ओर से लड़ कर इसने दैत्यों को पराजित किया, एवं इस तरह देवों की रक्षा की ।
इसकी वीरता से प्रसन्न हो कर, देवों ने इसे वर माँगने के लिए कहा । 'किन्तु उस समय अत्यधिक थका होने के कारण, यह निद्रित अवस्था में था। अतएव इसने वरदान माँगा, 'मैं सुख की नींद सोऊ, तथा यदि कोई मुझे उस नींद में जगा दे, तो वह मेरी दृष्टि से जल कर खाक हो जाये। इसके सिवाय इसने श्रीविष्णु के दर्शन की भी इच्छा प्रकट की।
इस प्रकार पर्वत की गुफा में यह काफी वर्षों तक निद्रा का मुख लेता रहा। इसी बीच एक घटना घटी । कालयवन ने कृष्ण को मारने के लिए उसका पीछा किया । कृष्ण भागता हुआ उसी गुफा में आया, जहाँ पर यह सोया हुआ था। इसके ऊपर अपना उत्तरीय डाल कर, कृष्ण स्वयं छिप गया । पीछा करता हुआ कालयवन गुफा में आया, तथा इसे कृष्ण समझ कर, खात के प्रहार से उसने इसे जगाया । मुचुकुंद बड़े क्रोध से उठा, तथा जैसे ही इसने कालयवन को देखा, वह उठकर वही भस्म हो
गया।
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कृष्णदर्शन- बाद में कृष्ण ने इसे दर्शन दे कर, राज्य की ओर जाने को कहा, तथा वर प्रदान किया, 'तुम समस्त प्राणियों के मित्र, तथा श्रेष्ठ ब्राह्मण बनोगे, तथा उसके उपरांत मुक्ति प्राप्त कर मेरी शरण मे आओगे'। श्रीकृष्ण के द्वारा पाये अशीर्वचनों से तुष्ट हो कर यह अपनी नगरी आया। यहाँ इसने देखा कि इसके राज्य को किसी दूसरे ने ले लिया है, एवं सभी मानव निन्न विचारधारा एवं प्रवृत्ति के हो गये है । यह देखते ही यह समझ गया कि, कलियुग का प्रारंभ हो गया है ।
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यह अपने नगर को छोड़ कर हिमालय के बदरिकाश्रम में जा कर तप करने लगा। वहाँ कुछ दिनों तक तपश्चर्यां
मुंड
करने के उपरांत, राजर्षि मुचुकुंद को विष्णुपद की प्राप्ति हुयी ( भा. १०.५१ विष्णु, ५.२३; ब्रहा. १९६: ह. वं. १.१२.९; २.५७ ) ।
संवाद --- यह उन राजाओं में था, जो सायंप्रातःस्मरणीय हैं ( म. अनु. १६५.५४ ) । इसने परशुराम से शरणागत की रक्षा के विषय में प्रश्न किया था, और उन्होंने इसे उचित उत्तर दे कर, कोत की कथा बता कर इसकी जिज्ञासा शान्त की थी ( म. शां. १४१-१४५) । राजा काम्बोज से इसे खड्ग की प्राप्ति हुयी थी, जिसे बाद को इसने मस्त को प्रदान किया ( म. शां १६०.७५) गोदानमहिमा के विषय में इसका निर्देश आदरपूर्वक आता है (म. अनु. ७६.२५)। यही नहीं, अपने जीवनकाल में इसने मांस भक्षण का भी निषेध कर रक्खा था। ।
परिवार -- इसके पुरुकुत्स और अंबरीष नामक दो भाई थे (भा. ९.६.३८६ वायु. ८८.७२ विष्णु . ४.२.२० ) । इसकी बहनों की संख्या ५० थीं, जिनका वरण समिरि ऋषि ने किया था (गरुड. १.१३८.२५ ) | ।
२. एक राजा, जिसकी कन्या का नाम चन्द्रभागा, तथा दामाद का नाम शोभन था ( पद्म. उ. ६० ) ।
मुंज-- एक ऋषि जो द्वैतवन में पाण्डयों के साथ उपस्थित था।
मुंज सामश्रवस एक राजा, जो समभवस् का - वंशज था (जै. उ. बा. ३.५.२; प. बा. ४.१ ) ।
केतु -- युधिष्ठिर की सभा का एक राजा (म. स.
४.१८ ) ।
मुंजकेश - एक आचार्य, जो वायु के अनुसार, व्यास की अथर्वनशिष्यपरंपरा में से सैंधवायन नामक ऋषि का शिष्य था । अन्य पुराणों में इसे 'बभ्रु' का ही नामांतर बताया गया है। इसके नाम पर पाँच ग्रंथ उपलब्ध हैं।
२. एक क्षत्रिय राजा, जो निचंद्र नामक असुर के अंश से उत्पन्न हुआ था (म. आ. ६१.२६)। भारतीय युद्ध में पाण्डवों की ओर से इसे रणनिमंत्रण भेजा गया था (म. उ. ४.१४ ) ।
मुंड -- एक असुर, जो शुंभ एवं निशुंभ का सेनापति था । इसका निर्देश चण्ड नामक असुर के साथ प्रायः सर्वत्र प्राप्त हैं (डमुंड देखिये) ।
२. भृगुकुलोत्पन्न गोत्रकार 'मंड' के नाम के लिए उपलब्ध पाठभेद ।
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