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याज्ञवल्क्य
प्राचीन चरित्रकोश
याज्ञवल्क्य
किये, और चारों कुण्डों में स्नान किया। उसके उपरांत | से अमरत्त्व प्राप्त हो सकता है (एतावद् खलु अमृतत्वम् )। इन्होंने उत्तरेश्वर में जा कर वाडवों का दर्शन किया, जिससे | आत्मतत्व का यह साक्षात्कार केवल मन से ही हो सकता सभी व्यक्ति ह-यादोष से मुक्त हुए (वायु.६०.६९-७१)। । है (मनसैवानुद्रष्टव्यम् । प्रस्तुत कथा पुरातन इतिहास के रूप में भीष्म के द्वारा | जनक-याज्ञवल्क्यसंवाद-बृहदारण्यक उपनिषद् के युधिष्ठिर से कही गयी है (म. शां २९८.४, ३०६.९२ )। चौथे अध्याय में आत्मज्ञानसम्बधी 'जनक याज्ञवल्क्यवंशावलि के अनुसार, देवराति जनक दाशरथि राम से संवाद प्राप्त है। उस संवाद के प्रारम्भ में याज्ञवल्क्य काफ़ी पूर्वकालीन माना जाता है।'
ने जनक से पूछा, 'अन्तिम सत्य के बारे में किन किन याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी-संवाद--याज्ञवल्क्य ऋषि के द्वारा | ऋषियों के उपदेश आज तक आपने सुना है। उस पर संन्यास लिये जाने पर, उसने अपनी संपत्ति कात्यायनी | जनक ने कहा, 'वाणी को परमसत्य कहनेवाले जित्वन् शैलिनि एवं मैत्रेयी नामक अपनी दो पत्नियों में विभाजित करनी | का, प्राण को ब्रह्म कहनेवाले उदंक शौल्बायन का, चक्षु को चाही। उस समय इसकी ब्रह्मवादिनी पत्नी मैत्रेयी ने परमसत्य कहनेवाले बकु वार्ण का, कर्ण को ब्रह्म कहनेवाले इससे अध्यात्मिक ज्ञान का हिस्सा माँगा, एवं इसे अमरत्व गर्दभीविपीत भारद्वाज का, मन को ब्रह्म कहनेवाले सत्यकाम प्राप्त करने का मार्ग पूछा। उस समय इसने मैत्रेयी से कहा, जाबाल का, एवं हृदय को अन्तिम सत्य कहनेवाले विदग्ध 'पति, पत्नी, संतान, संपत्ति ये सारे आत्मा के ही शाकल्य का उपदेश आज तक मैने श्रवण किया है । उस अनेकविध रूप है । इस आत्मा का निरीक्षण, अध्ययन एवं पर याज्ञवल्क्य ने कहा, 'तुम्हारे द्वारा सुने गये ये उपदेश मनन( निदिध्यास) करने से ही समस्त वस्तुजातों का ज्ञान अंशतः सत्य है, पूर्णरूपेण नही' (बृ. उ. ४.१.२-७)। प्राप्त होता है ' (बृ. उ. २. ४.२-५; मैत्रेयी देखिये)। अपने इस कथन से याज्ञवल्क्य यह कहना चाहता था कि, __ आत्मा का स्वरूप बताते हुये याज्ञवल्क्य ने. मैत्रेयी से | इन्द्रियों अथवा मन से परमसत्य प्राप्त होना असम्भव है। कहा, 'जिस तरह समस्त स्पर्श त्वचा में केंद्रीभूत होते हैं, | वह तो केवल आत्मज्ञान से ही प्राप्त हो सकता है। अथवा सारे विचार मन में समा जाते हैं, उसी प्रकार | क्यों कि, आत्मा ही केवल सत्य है, मन एवं इन्द्रियाँ संसार की सारी चीज़े आत्मा में केंद्रीभूत होती हैं (बृ. उ. |
सीमापाडीभत होती हैं (ब.उ. केवल साधनमात्र है। २.८.११) । इसी कारण, आत्मप्राप्ति ही मानवी प्रयत्नों मृत्यु का वर्णन-मृत्यु के समय मानवी देहात्मा की का सब से बडा साध्य है। बाकी सारे ध्येय भुलावे के स्थिति क्या होती है, उसका अत्यंत सुंदर वर्णन याज्ञवल्क्य (आर्तम् ) हैं ।
| ने जनक राजा को बताया था । इसने कहा, 'मृत्यु के समय ध्येयात्मक अद्वैतवाद-केवल आत्मा के ज्ञान से ही | मनुष्य की प्रज्ञात्मा उसके देहात्मा पर आरूढ होती है । बाह्यसृष्टि का ज्ञान हो सकता है, इस सिद्धान्त का विवरण | इसी कारण, बोझ से लदे हुए गाडी जैसा आतै चित्कार मृत्यु करते समय, याज्ञवल्क्य ने आत्मा एवं मानवी मन का की समय मानवी देहात्मा से निकलती है (बृ. उ. ४.३.३५)! ध्येयात्मक अद्वैत प्रतिपादित किया। इस प्रतिपादन के मृत्यु के पूर्व आँखो में से प्राणरूपी पुरुष सर्व प्रथम निकल समय, इसने आत्मा को दुंदुभी बजानेवाला वादक कह जाता है। पश्चात् हृदय का नोंक प्रकाशित होता है, जिसकी कर, मानवी मन को दुंदुभी वाद्य की उपमा दे दी। सहाय्यता से नेत्र, मस्तक अथवा अन्य कौनसी भी इंद्रियाँ याज्ञवल्क्य ने कहा, 'दुंदुभी बजानेवाले को हाथ में पकड़ | के द्वारा आत्मा निकल जाती है । उस समय, मनुष्य का लेने से, दुंदुभी का आवाज सहजवश हाथ में आता है। कर्म ही केवल उसके साथ रहता है, जो आत्मा के अगले उसी प्रकार आत्मा की ज्ञान होने से, संसार की सारी जन्म का मार्गदर्शक बनता है (बृ. उ. ४.४.१-५)। वस्तुमात्रों का ज्ञान विना किसी कष्टों से प्राप्त हो सकता है। तत्त्वज्ञान-(8) सुखैकपुरुषार्थवाद--'नैतिक कल्याण (बृ. उ. २.४.६-९)।
मानवीय जीवन का अन्तिम साध्य जरूर है; फिर भी ऐहिक अनरत्व की प्राप्ति--अमरत्व की प्राप्ति कैसे हो सकती | सुख का महत्त्व नैतिक कल्याण से कम नहीं है, ' ऐसा है, इसका विवरण करते हुये याज्ञवल्क्य ने कहा, 'आत्मा याज्ञवल्क्य का मत था। राजा जनक के सभा में जब यह के श्रवण, मनन एवं चिंतन कर आत्मतत्त्व के | गया तब उसने इसे उद्दशित कर कहा, 'आप धनलक्ष्मी व्यापकत्व का अनुभव हर एक साधक ने करना चाहिये | तथा गायों को प्राप्त करने के लिए आयें है, अथवा (आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः)। आत्मतत्त्व के इसी अनुभव विद्वानों के बीच चल रही चर्चा में भाग ले कर विजय प्राप्त