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उतथ्य.
प्राचीन चरित्रकोश
उत्तंक
बृहस्पति, देवताओं का पुरोहित था। बृहसति के ममता मोह से उत्तक वश नही होता यह देख कर संतुष्ट हो कर से बलात् संभोग समय पर, ममता ने अपने देवर बृहस्पति | उसे वरदान दिया। से कहा "मैं गर्भवती हूँ।" तब कामातुर बृहस्पति आपेसे | उत्तंक को अच्छी तरह पढा कर बैदने उसे घर जाने के बाहर हो गया। संभोग के लिये गर्भ का भी विरोध देख कर | लिये कहा। उस समय "आपको मैं क्या गुरुदक्षिणा उसने गर्भ को अन्धा होने का शाप दिया । वह दीर्घतमा | दूँ ?" ऐसा प्रश्न उत्तक ने उनसे पूछा । बैदने दक्षिणा औतथ्य हो गया (म. आ. ९८.५-१६; शां. ३२८)। लेना अमान्य कर दिया । परंतु उत्तक का अत्यधिक
इसकी एक और पत्नी सोमकन्या भद्रा थी। वरुण ने | आग्रह देख कर कहा कि, तुम्हारी गुरुपत्नी को जो चीज उसका अपहरण किया, तब इसने समुद्रशोषण किया | चाहिये हो, वह ला कर दो। गुरुपत्नी के पास जा कर तथा समुद्र को मरुस्थल में परिणत कर दिया। सरस्वती | उत्तंक ने पूछा कि तुम्हें क्या चाहिये? तब उसने कहा नदी को जलरहित तथा अदृश्य कर दिया । अन्त में समुद्र ने | कि मुझे पौष्य राजा की पत्नी के कुंडल चाहिये । उसने उचथ्य को भद्रा लौटा दी (म. अनु.२५९.९-३२ कुं.)। पौष्य राजा की पत्नी के पास से वे कुंडल मांग लाये। उन
उतथ्य तथा उचथ्य इसके पाठभेद है। मांधाता के | कुंडलों पर तक्षक की नजर है यह पौष्य की पत्नी को साथ इसका क्षात्रधर्म विषय पर सेवाद हआ था (म. शां. मालूम था, अतएव कुंडलों को ठीक से सम्हालने की ९१) जो उतथ्यगीता नामसे प्रसिद्ध है। इसका पुत्र सूचना उसने उत्तक को दी । उत्तक जब कुंडल ले कर जा शरद्वत् । (सत्यतपस् देखिये)।
रहा था तब तक्षक उसके पीछे बौद्ध भिक्षु के रुप में जाने २. शिवावतार गुहावासिन् का शिष्य ।
लगा। जब उत्तक ने वे कुंडल नीचे रखे तब तक्षक उन्हें उत्कचा, उत्कचोत्कृष्टा वा उत्कटा-कश्यप तथा
पाताल में ले गया। तब उत्तक पाताल जाने का मार्ग
ढूंढने लगा। उस समय इसकी गुरुभक्ति से संतुष्ट हो कर खशा की कन्या । .. .
इन्द्र ब्राह्मणरूप में इसे सहायता करने आया। उसने वज्र : उत्कल-(स्वा. उत्तान.) रुवं तथा इला का पुत्र ।
की सहायता से इसे मार्ग बना दिया। उत्तंक ने पाताल रुव वन में जाने के बाद राज्य इसके पास आया। परंतु
से कुंडल लाये तथा वे बैद भार्या को दिये | कुंडलों के विरक्त होने के कारण इसने उसका स्वीकार नहीं किया
वापस मिलने पर भी उत्तंक का तक्षक के प्रति क्रोध कम .(भा. ४.१३.६-१०)।
नही हुआ। उसका बदला लेने के लिये इसने जनमेजय २. वृत्रासुरानुयायी असुर । समुद्रमंथन के बाद हुए | को सर्प सत्र के लिये प्रेरित किया (म. आ. ३: इन्द्र देवदैत्यप्रसंग में इसने मातृगणों से युद्ध किया (भा. | देखिये)। यही कथा केवल नामों के भेद से अन्य स्थानों ८.१०)।
पर भी आई है। यह एक भार्गव था। यह मुनिश्रेष्ठ . ३. सुद्यम्न के तीन पुत्रों में से एक । इसने उत्कल | | गौतम का शिष्य । विद्याभ्यास समाप्त होने पर गुरु को नगरी की स्थापना की (पद्म. स.८; ब्रह्म.७)। गुरुदक्षिणा के रूप में क्या दूं, ऐसा पूछने पर इसकी गुरुपत्नी
उत्कल कात्य-सूक्तद्रष्टा (ऋ. ३.१५-१६)। ने सौदास राजाकी पत्नी के स्वर्णकुंडल लाने के लि
उत्कला-(स्वा. प्रिय.) सम्राज़ राजा की पत्नी। | कहा । सौदास अत्यंत भयंकर तथा मनुष्यभक्षक था। मरीचि राजा की माता।
परंतु बिना डरे उत्तंक उसके पास गया तथा कुडल मांगउत्तंक--यह बैद का शिष्य । यह अत्यंत मनोनिग्रही
ने लगा। कुंडल उसके पास न हो कर उसकी पत्नी के था । एकबार जब बैद ऋषि यजमानकृत्य के लिये बाहर | पार
पास थे। इससे उत्तक सौदास की पत्नी के पास गया तथा ये हए थे. तब आश्रम पर देखरेख रखने का काम उन्होंने उससे कुंडल माँग कर अपनी गुरुपत्नी को दिये। उत्तंक पर सौंपा । बैद के पीछे उसकी पत्नी ऋतुमती हुई। बाद में उत्तंक निर्जल मारवाड़ देश में तपश्चयां करने तब उत्तंक की परीक्षा देखने के हेतु उसने आश्रम की स्त्रियों | चला गया। एक बार श्रीकृष्ण से इसका मिलन हुआ। के द्वारा संदेशा भिजवाया, कि गुरुपत्नी का ऋतु व्यर्थ न | कौरवपांडवो का भारतीय युद्ध में नाश हो गया, यह हो ऐसा काम तुम करो । परंतु उनका निषेध कर उत्तंक ने | सुनते ही यह कृष्ण को शाप देने लगा। तब तत्त्वकथन उस प्रसंग का निवारण किया। बैद ऋषि के घर लौटने के करते हुए कृष्ण ने इसे विश्वरूप दाया। मरुभूमी में जहाँ बाद उसे यह सब मालूम हुआ। तब किसी भी प्रकार के | इच्छा हो वहाँ पानी प्राप्त करने का वरदान इसने माँगा ।
प्रा. च. ११]