________________
पिठरक
पिठरक -- कश्यप एवं कद्रु का पुत्र, एक नाग (म. आ. ३१.१४) । यह जनमेजय के सर्पसत्र में जल कर "मर गया था ( म. आ. ५२.१४ ) । पाठभेद - ' पीठरक' ( म. उ. १०१.१४ ) ।
प्राचीन चरित्रकोश
पिठीनस् – एक वैदिक राजा । इसके रक्षण के लिये, इंद्र ने रजि नामक दानव का वध किया था (ऋ. ६.२६. ६ ) । सायणाचार्य के अनुसार, 'रजि' एक स्त्री का नाम है, जिसे इंद्र ने पिठीनस् को प्रदान किया था । पिंडसेक्ट -- तक्षककुल का एक नाग, जो जनमेजय सर्पसत्र में मारा गया (म. आ. ५२.७ ) । पाठभेद ( भांडारकर संहिता)- ' पिंडभेत ' ।
पिंडारक—-कश्यपवंशी एक नाग, जो जनमेजय के सर्पसत्र में मारा गया (म. आ. ५२.१६ ) । २. एक यादव राजा, जो द्रोपदीस्वयंवर में उपस्थित था (म. आ. १७७.१८ ) ।
३. (सो. वसु. ) एक राजा । यह वसुदेव राजा का पुत्र था । मत्स्य के अनुसार, यह उसे रोहिणी से, एवं वायु के अनुसार, पौरवी से उत्पन्न हुआ था ।
४. धृतराष्ट्रकुल का एक नाग, जो जनमेजय के सर्पसत्र में मारा गया (म. आ. ५२.१६ ) ।
पितरः---एक देवतासमूह। इन्हे ' पिंड़' नामांतर भी प्राप्त है (म. शां. ३५५. २० ) । मनुष्य प्राणी के • पूर्वजों एवं सारे मनुष्यजाति के निर्माणकर्ता देवतासमूह, इन दोनों अर्थों में 'पितर' शब्द का उपयोग ऋग्वेद, महाभारत एवं पुराणों में मिलता है । प्राचीन भारतीय 'वाङ्मय में प्राप्त ' पितरों' की यह कल्पना प्राचीन ईरानी वाम में निर्दिष्ट 'फ्रवेशि' से मिलती जुलती है ।
ऋग्वेद में प्राप्त 'पितृसूक्त' में पितरों के उत्तम, मध्यम, एवं अधम प्रकार दिये गये है (ऋ. १०.१५.१) । ऋग्वेद में निम्नलिखित पितरों का निर्देश प्राप्त है: - अंगिरस, वैरूप, अथर्वण, भृगु, नगग्व, दशग्व (ऋ. १०.१४.५ ६)। इनमें से ' अंगिरस ' पितर प्रायः यम के साथ रहते थे (ऋ. १०.१४.३-५) । वे अग्नि से (ऋ. १०. ६२.१ ), एवं आकाश से (ऋ. ४.२.१५) उत्पन्न हुये थे । नगग्व एवं दशख अंगिरस पितरों के ही उपविभाग थे ।
पितरः
मृत व्यक्ति की आत्मा, अग्नि के माध्यम से यमलोक में बसे हुये पितरों तक पहुँच जाती थी (ऋ. १०.१६.१-२ ) । पितरो के इस मार्ग को 'पितृयाण ' या ' अर्चिरादि ' कहते थे (गी. ८.२४-२६ ) । पितरों का राजा यम था । यम का राज्य 'माध्यामिक ' ( पितृलोक ) नामक लोक में स्थित था ( निरुक्त ११.१८ ) । मानवों में पितृलोक पहुँचने वाला, पहिला मृतक यम था । इसलिये वह पितृलोक का राजा बना। पितृलोक का यह यमराज स्वर्ग में सर्वोच्च था । तैत्तिरीय ब्राह्मण में भूलोक एवं अंतरिक्ष के साथ, पितृलोक का निर्देश प्राप्त है, एवं उसे तृतीयलोक कहा गया है ( तै. बा. १.३.१०.५ ) । बृह्मदारण्यकोपनिषद में भी भूलोक, देवलोक, एवं पितृलोक ऐसे तीन लोकों का निर्देश प्राप्त है (बृ. उ. १.५.१६ ) ।
मनु के अनुसार, पितरो का जन्म ऋषियों से हुआ, एवं उन पितरों से देव एवं मनुष्य जाति का निर्माण हुआ । आगे चल कर, देवों नें चर एवं अचर सृष्टि का निर्माण किया (मनु. ३.२०१ ) ।
वैदिक वाङ्मय में, पितरों को देवों से अलग माना गया है । ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार, मानववंश के गंधर्व, पितर, देव, सर्प, एवं मनुष्य ये पाँच प्रमुख विभाग थे । उनमें से, देव एवं पितरों से मनुष्यजाति का निर्माण हुआ ( ऐ. बा. ३.३१ ) ।
उत्तरकालीन ग्रन्थों में तीन से अधिक पितरों का निर्देश पाया जाता है। 'नंदिपुराण' के अनुसार, आग्निष्वात्त, बर्हिषद, काव्य, सुकालिन् ये क्रमश ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्रों के पितर माने गये है । मनुस्मृति में इन चार वर्णों के पितरो के नाम, सोमप, हविर्भुज, आज्यप एवं सुकालिन् दिये गये हैं (मनु. ३.१९३ - १९८ ) । मनु ने अन्य एक स्थान पर, अनमिदग्ध, अग्निदग्ध, काव्य, बर्हिषद, आग्निष्वात्त, सौम्य इन पितरों को ब्राह्मणों के पितर कहा है (मनु. ३.१९९ ) ।
पुराणों एवं महाभारत में प्रायः सर्वत्र सात पितृगणों का निर्देश प्राप्त है। स्कंदपुराण में नौ पितृगणों का निर्देश हैं, जिनके नाम इस प्रकार है :- अग्निष्वात्त,
४१९
पितरों को सोमरस प्रिय था (ऋ. १०.१५.१ ) । इन्हें यज्ञ में 'स्वधा' कह कर आहुति दी जाती थी । ये कुशासन पर सोते थे (ऋ१०.१५.५ ) । अग्नि एवं इंद्र के साथ, ये यज्ञभाग को स्वीकार करने के लिए उपस्थित होते थे (ऋ. १०.१५.१० ) ।
शतपथ ब्राह्मण में, पितरों के सोमवंत, बर्हिषद, एवं अग्निष्वात्त, ऐसे तीन प्रकार दिये गये है ( श. बा. २.६. १.७ ) । उस ग्रन्थ के अनुसार, 'सोमयज्ञ, ' ' चरुयज्ञ,' एवं 'सामान्ययज्ञ' करनेवाले व्यक्ति मृत्यु के बाद, क्रमशः सोमवन्त, बर्हिषद, एवं अग्निष्वात्त पितर बन जाते हैं ।