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च्यवन
प्राचीन चरित्रकोश
छाया
पकडा गया। मछुएँ घबरा कर नहुष राजा के पास गये। जाता था। ऐसी स्थिति में भी, राजा इसके पीछे भागता . राजा ने ऋषि की पूजा की। कहा, 'आपको जो चाहिये रहा। यह अदृश्य होते ही, राजा राजमहल में आया।
आप मुझे से माँग लें'। तत्र च्यवन ने कहा, 'मेरी योग्य | उसने देखा, च्यवन सो रहा है। कीमत आँक कर इन मछुओं को दे दे। अपना संपूर्ण
• कुछ समय के बाद, यह जागृत हुआ। किंतु दूसरी करवट राज्य देने के लिये राजा तैय्यार हो गया। फिर भी च्यवन
ले कर पुनः २१ दिन तक सोया। बाद में जागृत होते ही, की योग्य कीमत आँकी नहीं गई। तब गविजात नामक
च्यवन ने रथ को घोड़ों के बदले एक ओर कुशिक को तथा ऋषि ने राजा को इसे गोधन देने के लिये कहा। राजा
दूसरी ओर उसकी पत्नी को जोत लिया। स्वयं हाथ में द्वारा गायें दी जाने पर, यह अत्यंत संतुष्ट हुआ। पश्चात् |
चाबुक ले कर, उन्हें मारते हुए यह अरण्य से रथ हाँकने इसने नहुष को गोधन का महत्व समझाया (म. अनु. |
लगा। यह सब च्यवन ने इसी उद्देश्य से किया कि, त्रस्त ८५-८७)।
हो कर कुशिक उसका तिरस्कार करें। तब इस निमित्त कुशिकवंश के कारण, अपने वंश में भिन्नजातित्व का |
को लेकर, यह उसे जला कर भस्म कर सके । इसी उद्देश्य दोष उत्पन्न होगा, यह इसने तपःसामर्थ्य से जान लिया।
से इसने कई प्रकारों से कुशिक को अत्यधिक कष्ट दिये । उस वंश का नाश करने के उद्देश्य से, यह कुशिक राजा
पर कुछ फायदा नहीं हुआ। अन्त में प्रसन्न हो कर इसने . के पास गया। उससे कहा, 'हे राजा ! मैं तपश्चर्या
उस राजा को वर दिया, 'तुम्हारे कुल में ब्राह्मण उत्पन्न करना चाहता हूँ। इसलिये तुम अपनी भार्यासमवेत
होगा' (म. अनु. ८७-९०)। अहर्निश मेरी सेवा करो'। राजा ने ऋषि का यह कहना मान्य किया। तदनंतर राजा को इसने भोजन लाने को इसे मनुपुत्री आरुषी से और्व नामक एक पुत्र हुआ कहा । भोजन लाते ही, च्यवन ने उस भोजन को जला कर (म. आ. ४-६)। इसका आश्रम गया में था (वायु. भस्म कर दिया। तदनंतर यह राजपर्यंक पर निद्राधीन हो १०८.७६)। च्यवन एक उत्कृष्ट वक्ता था, तथा सप्तर्षियों गया। राजा अपनी भार्या सहवर्तमान इसके पैर दबाने में से एक था (म. अनु. ८५)। इसे प्रमति नामक एक लगा। इसप्रकार एक ही करवट पर, यह २१ दिन तक पुत्र था (म. आ. ८.२। यह भृगुगोत्र का एक प्रवर भी सोया रहा। तब तक बिना कुछ खाये पीये, राजा.इसके | था। यह ऋषि तथा मंत्रकार था (भार्गव देखिये)। इसे पैर दबाते बैठ गया।
कांचन ऐसा नामांतर था (वा. रा. उ. ६६.१७)। • २१ दिन के बाद नींद से जागृत हो कर, यह यकायक च्यवान--च्यवन भार्गव ऋषि का नामांतर । ऋग्वेद भागने लगा । क्षण में यह दिखता था, क्षण में अदृश्य हो में सर्वत्र यही रूप निर्दिष्ट है (च्यवन भार्गव देखिये)।
छगल--दंडीमुंडीश्वर नामक शिवावतार का शिष्य । छंदोगेय-अत्रिकुल का गोत्रकार ।
छगलिन्-कृष्णयजुर्वेद का एक शाखाप्रवर्तक । छंदोदेव-मतंग को इंद्र की कृपा से मिला हुआ वैशंपायनशिष्य कलापिन् का यह शिष्य था । पाणिनि ने नाम (मतंग देखिये )। इसका निर्देश किया है (पा. सू. ४.३.१०९)। चार - छाया--संज्ञा को सूर्य का तेज सहन नहीं होता था, अप्रसिद्ध उपनिषदों में छागलेयोपनिषद् प्रसिद्ध हुआ हैं इसलिये उसने अपनी ही प्रतिकृतिस्वरूप यह स्त्री (डॉ. श्री. कृ. बेलवलकर स. १९२५)। 'छगलिन् प्रोक्त' निर्माण की। अपने पति की सेवा तथा बच्चों के लालनब्राह्मण ग्रंथ अध्ययन करनेवाले को छागलेयिन कहते थे। पालन करने के लिये इसे रखा। तदनंतर इसे तीन पुत्र
छंदोगमाहकि--ब्रह्मवृद्धि का पैतृक नाम । हुए । इससे इसमें सापत्नभाव बढ़ गया। यह श्राद्धदेव, प्रा. च. २८]
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