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औदन्य
प्राचीन चरित्रकोश
और्व
(तै. ब्रा. ३.९. १५.३)। यहां इसका नाम औदन्यव औपस्थव- विश्वामित्रगोत्र का ऋषिगण । दिया गया है।
औपस्वती-पाराशरीपुत्र का शिष्य (बृ. उ. ३.५.१)। औदभारि-खंडिक का पैतृक नाम (श. बा. ११. औपावि जानश्रतेय-एक राजर्षि (श.वा. ५.१.१. ८.४.६)।
५-७)। इसने वाजपेय किया था (मै. सं. १.४.५)। __ औदमय-अंग वैरोचन का पुरोहित (ऐ. बा. ८. औपोदिति--कर का स्थपति (सेनानी ) व्याघ्रपाद २२)। वेबर के पाठानुसार आत्रेय का यह नाम है। का पत्र । गौपालायन इसका पैतृक नाम है (बौ. श्री.२०. कुछ प्रतियों में उदमय पाठ भी दिखायी देता है।
२५)। उयोदिता नामक स्त्री का पुत्र (श. ब्रा. १.७.४. औदवाहि-भारद्वाज का गुरु (बृ. उ. २.५.२०:४. । १६)। श. बा. की कण्वप्रति इसका नाम तुर्निज औमो
दितेय वैयाध्रपाद्य देती है (श. वा. १.९.३.१६)। . औदुंबरायण-निरुक्त में शब्द के नित्यत्व के
औपोदितेय--औपोदिति का नामान्तर । संबंध में बोलते समय, शब्द अनित्य हैं ऐसा कहने के ।
औरस-व्यास की सामशिष्यपरंपरा में वायु तथा कारण, इसका उल्लेख किया गया है (१.२.१)।
ब्रह्मांडमतानुसार कुथुमी का शिष्य (व्यास देखिये)। औहालकि--असुरविंद (जै. बा.१.७५) वा कुसु
__ और्णवाभ-कौण्डिण्य का शिष्य (बृ. उ. ४.५.२६ रुचिंद (प.बा. १.१६; पं. बा. २२.१५.१०), इस नाम से
माध्य.)। निरुक्त में दो स्थानों पर यह नैरुक्त नामक पहचाने जाने वाले आचार्य तथा श्वेतकेतु (श. बा. ३. |
व्याकरणकारों के मतों का अनुसरण करता है (७.१५:१२. ४.३.१३, ४.२.५.१५) का पैतृक नाम है। कठोपनिषद्
१९)। दूसरे दो स्थानों पर ऐतिहासिकों के मतों का में नचिकेतस् के लिये औद्दालकि नाम प्रयुक्त है (१.
अनुसरण करता है (६.१२; १२.१)। . .
. और्व--एक कुल । भृगुवंश में होने के कारण भृगु से औपगव-वसिष्ठकुल के गोत्रकार ऋषिगण । आप
इसका निकट संबंध था (ऋ.८.१०२.४ )। एतश औवों गव पाठभेद है।
में से एक था । इस कुल का अभ्यग्नि ऐतशायन पापिष्ठ है। औपगवि-उद्धव का नाम (भा. ३.४)। (ऐ. बा. ६.३३; सां. ब्रा. ३०.५)। औरों ने स्वतः अत्रि
औपजंघनि--आसुरि का शिष्य । इसका शिष्य त्रैवणि से पुत्र प्राप्त किये थे (ते. सं. ७.१.८.१) दो औवों का (बृ. उ. २.६.३; ४.६.३)।
उल्लेख सम्मान के साथ आया है (पं. बा. २१.१०.६)। औपतस्विनि-राम का पैतृक नाम (श. ब्रा. ४.६. और्व यह भृग के बडे कुल की शाखा रही होगी। और्व, १.७)।
| गौतम, भारद्वाज इन तीन गोत्रों का उल्लेख भी है (स. औपमन्यव-बहुत से अध्यापकों के लिये यह नाम श्री. १.४)। प्रयुक्त दिखाई पड़ता है। एक मंत्र के पठन के बारे में इसने परीक्षित् के प्रायोपवेशन के समय आया हुआ जानकारी बताई है (बौ. श्री. २.२.१)। एक वैयाकरण | एक आचार्य (जै. ब्रा. १. १८)। एक ब्रह्मर्षि (भा. है (नि. १.१.५, २,२.११; ३.१८) पक्षियों का नाम- १.१९.१०)। च्यवन ऋषि की भायां मनुपुत्री आरुषी करण उनके द्वारा निकाली ध्वनि के कारण होता है इस का पुत्र (म. आ. ६०.४५)। इसका नाम ऊंव है (म. मत का औपमन्यव ने निषेध किया है (कांबोज, प्राचीन- | अनु. ५६ )। आत्मवान् तथा नापी का पुत्र (विष्णुशाल, महाशाल देखिये)।
धर्म. १.३२)। २. वसिष्ठगोत्र का ऋषि ।
कृतवीर्य नामक एक हैहयवंशीय राजा के उपाध्याय औपर-दंड का पैतृक नाम (ते. सं. ६.२.९.४)। | भगकुलोत्पन्न थे। कृतवीर्य ने बहुत से यज्ञ कर भगुओं
औपलोम--वसिष्ठकुल का एक गोत्रकार ऋषिगण । | को बहुत सी संपत्ति दी थी। भविष्य में कृतवीर्य के वंशअपष्टोम ऐसा पाठभेद है।
जों को द्रव्य का अभाव महसूस होने लगा। तब उन्होंने औपवेशि--उद्दालक के पिता अरुण का पैतृक नाम | अपने उपाध्याय के पास द्रव्य की मांग की। कुछ लोगों (क. सं. २६.१०; अरुण औपवेशि देखिये)। ने भय मे द्रव्य दिया। कुछ लोगों ने जमीन में गाड़
औपशवि-एक वैयाकरण (शु. प्रा. ३.१३२)। कर रख दिया। एक भार्गव ऋषि का घर खोद कर देखने औपस्थल--वसिष्टकुल का एक गोत्रकार । पर कुछ द्रव्य प्राप्त हुआ। इससे कृतवीय के वंशज अत्यंत