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प्राचीन चरित्रकोश
रुद्र
इस सांप्रदाय का प्रमुख ग्रंथ 'शिवदृष्टि' है, जिसकी विस्तृत टीका अभिनवगुप्त के द्वारा लिखी गयी है । इस सांप्रदाय का उदयकाल ई. स. १० वीं शताब्दी का प्रारंभ माना जाता है ।
इन दोनों सांप्रदायों में कापालिक एवं पाशुपत जैसे प्राणायाम एवं अघोरी आचरण पर जोर नहीं दिया गया है, बल्कि चित्तशुद्धि के द्वारा 'आनव, ' ' मायिय' एवं 'काय' आदि मलों (मालिन्य ) को दूर करने को कहा गया है । इस प्रकार ये दोनों सिद्धान्त अघोरी रुद्र उपासकों से कतिपय श्रेष्ठ प्रतीत होते हैं । राजतरंगिणी के काश्मीर का शैव सांप्रदाय अत्यधिक प्राचीन है, एवं सम्राट अशोक के द्वारा काश्मीर मैं शिव के दो देवालय बनवायें गये थे । काश्मीर का सुविख्यात राजा दामोदर (द्वितीय) शिव का अनन्य उपासक था । इस प्रकार प्राचीन काल से प्रचलित रहे शिव-उपासना के पुनरुत्थान का महत्वपूर्ण कार्य 'स्पंद शास्त्र' एवं ' प्रत्यभिज्ञान शास्त्र' वादी आचार्यों के द्वारा ई. स. १० वीं शताब्दी में किया गया ।
अनुसार,
वीरशैव ( लिंगायत) सांप्रदाय - इस सांप्रदाय का आद्य प्रसारक आचार्य 'बसव ' माना जाता है, जिसकी जीवनगाथा 'बसवपुराण' में दी गयी है। इस सांप्रदाय के मत शैवदर्शन अथवा सिद्धान्तदर्शन से काफी मिलते जुलते है । इस पुराण से प्रतीत होता है की, प्राचीन काल में विश्वेश्वराध्य, पण्डिताराध्य, एकोराम आदि आचार्यों के द्वारा प्रसृत किये गये सांप्रदाय को बसव ने ई. स. १२ वीं शताब्दी में आगे चलाया ।
इस सांप्रदाय के अनुसार, ब्रह्मन् का स्वरूप 'सत्, ' 'चित्' एवं 'आनंद' मय है, एवं वही शिवतत्त्व है। इस आद्य शिवतत्त्व के लिंग (शिवलिंग), एवं अंग (मानवी (आत्मा) ऐसे दो प्रकार माने गये हैं, एवं इन दोनों का संयोग शिव की भक्ति से ही होता है ऐसा कहा गया है।
इस तत्त्वज्ञान में लिंग के महालिंग, प्रसादलिंग, चरलिंग, शिवलिंग, गुरुलिंग एवं आचारलिंग ऐसे प्रकार कहे गये हैं, जो शिव के ही विभिन्न रूप हैं । इसी प्रकार अंग की भी 'योगांग,' 'भोगांग' एवं 'त्यागांग ' ऐसी तीन अवस्थाएँ, बतायी गयी है, जो शिव की भक्ति की तीन अवस्थाएँ मानी गयी हैं ।
रुद्र
द्रविड देश में शिवपूजा - ई. स. ७ वीं शताब्दी से द्रविड देश में शिवपूजा प्रचलित थी । इस प्रदेश के शैवसांप्रदाय का आद्य प्रचारक तिरुनानसंबंध था, जिसके द्वारा लिखित ३८४ पदिगम् (स्तोत्र ) द्रविड देश में वेदों जैसे पवित्र माने जाते हैं। तंजोर के राजराजेश्वर मंदिर में प्राप्त राजराजदेव के ई. स. १० वीं शताब्दी के शिलालेख में तिरुनानसंबंध का अत्यंत आदर से उल्लेख किया गया है । कांची के शिव मंदिर में, एवं पल्लव राजा राजसिंह के द्वारा ई. स. ६ वीं शताब्दी बनवायें गयें राजसिंहेश्वर मंदिर में शिवपूजा का अत्यंत श्रद्धाभाव से निर्देश प्राप्त है । पेरियापुराण नामक तमिल ग्रंथ में इस प्रदेश में हुयें ६३ शिवभक्तों के जीवनचरित्र दिये गये हैं ।
लिंगायतों के आचार्य स्वयं को लिंगी ब्राह्मण (पंचम) कहलाते है, एवं इस सांप्रदाय के उपासक गले में शिवलिंग की प्रतिमा धारण करते हैं ।
शक्तिपूजा -- शिवपूजा का एका उपविभाग शक्ति अथवा देवी की उपासना है, जहाँ देवी की त्रिपुरसुंदरी नाम से पूजा की जाती है ( देवी देखिये) ।
शिवपूजा के अन्य कई प्रकार गणपति (विनायक) एवं स्कंद की उपासना हैं ( विनायक एवं स्कंद देखिये ) ।
शिवरात्रि - हर एक माह के कृष्ण एवं शुक्ल चतुर्दशी को शिवरात्रि कहते है, एवं फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को महाशिवरात्रि कहते है । ये दिन शिव उपासना की दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं।
शिव-उपासना के ग्रन्थ - इस संबंध में अनेक स्वतंत्र ग्रंथ, एवं आख्यान एवं उपाख्यान महाभारत एवं पुराणों में प्राप्त है, जो निम्नप्रकार है:
(१) शिवसहस्रनाम, जो महाभारत में प्राप्त यह तण्डि ने उपमन्यु को, एवं उपमन्यु ने कृष्ण को कथन किया था ( म. अनु. १७.३१-१५३ )। इसके अतिरिक्त दक्षवर्णित शिवसहस्रनाम महाभारत में प्राप्त है ( म. शां. परि. १.२८ ) ।
शिवसहस्रनाम की स्वतंत्र रचनाएँ भी लिंगपुराण ( लिंग. ६५.९८ ), एवं शिवपुराण ( शिव. कोटि ३५ ) में प्राप्त है ।
(२) शिवपुराण - शैवसांप्रदाय के निम्नलिखित पुराण ग्रंथ प्राप्त है: - कूर्म, ब्रह्मांड, भविष्य, मत्स्य, मार्केडेय, लिंग, वराह, वामन, शिव एवं स्कंद (स्कंद. शिवरहस्य खंड संभवकांड २.३० - ३३; व्यास देखिये ) |
(३) शिवगीता, जो पद्म पुराण के गौडीय संस्करण में प्राप्त हैं, किन्तु आनंदाश्रम संस्करण में अप्राप्य है ।
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