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प्राचीन चरित्रकोश
(२३) श्वेत - - ( कालंजर) - उशिक, बृहदश्व, तीन प्रमुख सांप्रदायों का निर्माण हुआ :- १. कापालिक; देवल, नवि
२. पाशुपत
शैव
(२४)
- (नैमिषारण्य ) --शालिहोत्र, अभि
वेश, युवनाश्व, शरद्वसु ।
(1) कापालिक सांप्रदाय - रामानुज के अनुसार, शरीर के छः मुद्रिका का ज्ञान पा कर, एवं स्त्री के जननेंद्रिय में (२५) इंडीकुंडीश्वर उगल कुंडकर्ण कुमांड स्थित आत्मा का मनन कर जो लोग शिव की उपासना करते -- प्रवाहक है, उन्हें काल सांप्रदायी कहते है ( रामानुज २.२. (२६) सहिष्णु ( रुद्रेक्ट) उड़क, विद्युत् ३५ ) । अपने इस हेतु के सिध्यर्थ्य इस संप्रदाय के लोग | शंबुक, आश्वलायन । निम्नलिखित आचारों को प्राधान्य देते हैं :- १.
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उलूक, वत्स ।
( २७ ) सोम -- ( प्रभासतीर्थ ) -- अक्षपाद, कुमार, खोंपडी में भोजन लेना; २. चिताभस्म सारे शरीर को लगाना; ३. चिताभस्म भक्षण करना; ४. हाथ में डण्डा धारण करना; ५. मद्य का चपक साथ में रखना; ६. मय में स्थित सहदेवता की उपासना करना ।
ये लोग गले में रुद्राक्ष की माला पहनते है, एवं वा धारण करते हैं। गले में मुंडमाला धारण करनेवाले भैरव एवं चण्डिका की ये लोग उपासना करते है, जिन्हें शिव एवं पार्वती का अवतार मानते है।
इसी सांप्रदाय की एक शाखा को 'कालामुख' अथवा कर्मठ मानी जाती है। 'महानतर' कहते है, जो अन्य सांप्रदायिकों से अधिक
( २८ ) लकुलिन् - - कुशिक, गर्ग, मित्र, तौरुण्य (वायु. २३ शिवरात ४-५ शिव वायु ८-९ . ७) । लिंग. ( ४ ) शत - अवतार -- भिन्न कल्पों में उत्पन्न हुयें शिव के शत अवतारों की नामावलि भी शिवपुराण में प्राप्त है, जहाँ इन अवतारों के वस्त्रों के विभिन्न रंग, एवं पुत्रों के विभिन्न नाम विस्तृत रूप से प्राप्त हैं ( शिव. शत. ५ )
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शिव उपासना के सांप्रदाय शिव की उपासाना भारतवर्ष के सारे विभागों में प्राचीन काल से ही अत्यंत श्रद्धा से की जाती थी । रुद्र के इन उपासकों के दो विभाग दिखाई देते हैं:-१. एक सामान्य उपासक जो शिव उपासना के कौनसे भी सांप्रदाय में शामिल न होते हुए भी शिव की उपासना करते हैं; २. शिव के अन्य उ राखक, जो शिव उपासना के किसी न किसी सांप्रदाय में शामिल हो कर इसकी उपासना करते है ।
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सुबंधु,
कालिदास, सु, बाण, श्रीहर्ष भट्टनारायण, भव भूति आदि अनेक प्राचीन साहित्यिकों के ग्रंथ में श्रीविष्णु के साथ रूद्र शिव का भी नमन किया गया है। प्राचीन चालुक्य एवं राष्ट्रकूट राजाओं के द्वारा शिव के अनेकानेक मंदिर बनायें गयें है, जिनमें वेरूल में स्थित कैलास मंदिर विशेष उल्लेखनीय है। ये सारी कृतियाँ सामान्य शिवभक्तों के द्वारा किये गये सांप्रदाय निरपेक्ष शिवोपासना के उदाहरण माने जा सकते हैं ।
रुद्र
शिव उपासना का आच सांप्रदाय-ई. स. १ ली शताब्दी में श्रीविष्णु-उपासना के 'पांचरात्र' नामक सांप्रदाय की उत्पत्ति हुई । उसका अनुसरण कर ई. स. २ री शताब्दी में लकुलिन नामक आचार्य ने 'पाशुपत' नामक शिव - उपासना के आद्य सांप्रदाय की स्थापना की, एवं इस हेतु 'पंचा' नामक एक ग्रंथ भी लिखा। आगे चल कर इसी पाशुपत सांप्रदाय से शिव उपासना के निम्नलिखित
(२) पाशुपत सांप्रदाय इस सांप्रदाय के लोग सारे शरीर को चिताभस्म लगाते है, एवं चिताभस्म में ही सोते । है भीषण हास्य, नृत्य, गायन, हुहुक्कार एवं अस्पष्ट शब्दों में ॐ कार का जाप, आदि छ भागों से ये शिव की उपासना करते हैं।
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इस सांप्रदाय की सारी उपासनापद्धति, अनार्य लोगों के उपासनापद्धति से आयी हुई प्रतीत होती है।
(३) शैव सांप्रदाय -- यह सांप्रदाय कापालिक एवं पाशुपत जैसे 'अतिमार्गिक सांप्रदायोंसे तुलना में अधिक बुद्धिवादी है, जिस कारण इन्हें 'सिद्धान्तवादी' पदा जाता है। इस सांप्रदाय में मानवी आत्मा को पशु कहा गया है, जो इंद्रियों से बँधा हुआ है। पशुपति अथवा शिव की मंत्रोपासना से आत्मा इन पाशों से मुक्त होता है, ऐसी इस सांप्रदाय के लोगों की कल्पना है ।
काश्मीरशैव सांप्रदाय इस सांप्रदाय की निम्नलिखित दो प्रमुख शाखाएँ मानी जाती हैं : -- १. स्पंदशास्त्र, जिसका जनक वसुगुप्त एवं उसका शिष्य कल्लाट माने जाते हैं। इस सांप्रदाय के दो प्रमुख ग्रंथ 'शिवसूत्रम् ' एवं ' संदकारिका' हैं, एवं इसका प्रारंभ काल ई. स. ९ वीं शताब्दी माना जाता है: २. प्रत्यभिज्ञानशास्त्र, जिसका उनक सोमानंद एवं उसका शिष्य उदयाकर माने जाते है।
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