SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 659
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मांडूकेय प्राचीन चरित्रकोश मातलि (ऋ. २. एक आचार्य, ओम नामक महर्षि का पुत्र लिए मातरिश्वन् का आवाहन किया गया है जो मंडूक था। ब्रह्मयज्ञशंगतपंग में इसका निर्देश प्राप्त है (आश्र, गृ. ३.४.४) । ऋक्प्रातिशाख्य के अनुसार, स्वरों के बारे में इसने अनेक महमत प्रतिपादन किये थे (ऋ. प्रा. २०० ) । विष्णु, ब्रह्मांड एवं भागवत में इसे व्यास की ऋशिष्य परंपरा में से इंद्रप्रमति ऋपि का शिष्य कहा गया है। इसके पुत्र का नाम सत्यअवस् था, जो इसका शिष्य भी था । मातंग एक मुनि, जिसके राजनीति विषयक अनेक मत महाभारत में दुर्योधन के द्वारा उद्धृत किये गये हैं। इसके ये मत निम्नप्रकार थे, वीर पुरुष को चाहिये कि, यह सदा उद्योग ही करे किसीके सामने नतमस्तक न हो; क्योंकि, उद्योग करना ही पुरुष का कर्तव्य एवं पुरुषार्थ है । वीर पुरुष असमय में नष्ट भले ही हो जाये, परंतु कभी शत्रु के सामने सिर न झुकाये ' (म.उ. १२५. १९-२० ) । मातंगिनन एक गोत्रकार ऋषिगण | मातंगी——कश्यप एवं क्रोधवशा की नौ कन्याओं में से एक । इसने हाथियों को जन्म दिया था (म. आ. ६०.६४)। २. एक राक्षस, जो कश्यप एवं खशा का एक पुत्र साथ प्राप्त है ( था । मातरिश्वन् — ऋग्वेद में निर्दिष्ट एक देवता, जो प्रायः अग्नि तथा अग्नि को उत्पन्न करनेवाले देवता से समीकृत की गयी है। इस देवता का निर्देश ऋग्वेद के तृतीय मंडल में पाँच बार, एवं षष्ठ मंडल में एक बार प्राप्त है । उनमें से तीन स्थलों पर इसे अग्नि का ही नामांतर बताया गया है (ऋ. ३.५.९; २६.२ ) । ऋग्वेद में अन्यत्र तनूनपात्, नराशंस, यम एवं मातरिश्वन् को अग्नि के ही नामांतर । १०.८५.४०) 1 अथर्ववेद, ब्राह्मण ग्रंथ एवं उनके उत्तरकालीन साहित्य में मातरिश्वन् नाम वायु की उपाधि के रूप में प्रयुक्त किया गया है। इसे बायु के समान वेगवान् एवं सर्व की भाँति फूँफकार मारता हुआ बताया गया है (ऋ. १.६.६०९३. २९.११ जे. उ. बा.४.२०.८ ) । व्युत्पत्ति -- भाषाशास्त्रीय दृष्टि से मातरिश्वन् शब्द का अर्थ, 'जिसका अपनी माता में निर्माण हुआ हो किया जाता है। यहाँ माता शब्द से गर्जन करनेवाले मेघ का आशय हो सकता है, क्यों कि, मातरिश्वन् आकाश से आ सकते है । यास्क के अनुसार, मातरिश्वन् की व्युत्पत्ति, ' से अंतरिक्ष में (मातरि) साँस लेता है (न्) ऐसी की गयी है। वहाँ इसे वायु में साँस लेनेवाला पवन माना गया है (नि. ७.२६ ) । ये गये हैं . १.१६४९ २.२९ ) । मझिका दिव्यरूपवेद के प्रथम मंडल के अनुसार, मातरिश्वन् अनि के एक दिव्य रूप का मूर्तीकरण प्रतीत होता है । वहाँ इसे आकाश से पृथ्वीपर आनेवाला विवस्वत् का दूत बताया गया है, एवं इसके द्वारा गुप्त अग्नि को पृथ्वी पर लाने का संकेत भी किया गया है (ऋ. १.२८.२; ३.५.९; ६.८.४ ) । मातरिश्वन् को विद्युत् से समीकृत किया गया प्रतीत होता है। ऋग्वेद के विवाहसूक्त में दो प्रेमियों के हृदय को संयुत करने के २. एक सुविख्यात यज्ञकर्ता, जिसका निर्देश ऋग्वेद के बालखिल्य सूक्त में मेध्य एवं पृषन नामक आचार्यों के ८.५२.२ ) । सांख्यायन औतसूत्र में इसका निर्देश पृषत्र, मेध्य मातरिश्वन्, एवं मातरिश्व नाम से किया गया है (सां. श्रौ. १६.११.२६ ) । किन्तु वे दोनों पाठ योग्य नहीं प्रतीत होते हैं, क्योंकि, पृष एवं मेध्य ये दोनो मातरिश्वन् से अलग व्यक्ति थे । ऋग्वेद में अन्यस्थान पर इनको मातरिश्रपुत्र कहा गया है। (ऋ. १०.४८.२ ) । २. गरुड की प्रमुख सन्तानों में से एक (म. उ. ९९. १४) । मातलि -- इंद्र का सारथि । इसकी पत्नी का नाम सुधर्मा था, जिससे इसे गोमुख नामक पुत्र, गुणकेशी नामक कन्या उत्पन्न हुयी थी ( म.उ. ९५.१९-२० ) । अपनी कन्या गुणकेशी के लिए सुयोग्य वर खोजने के लिए, यह नारद को साथ लेकर पाताल लोक गया था (म. उ. ९६.८ ) । वहाँ नागकुमार सुमुख के साथ इसने अपनी कन्या का विवाह तय किया एवं नागराज आर्यक को अपने साथ ले कर, यह स्वर्गलोक में इंद्र के पास गया। वहाँ इंद्र के संमति से गुणकेशी एवं सुमुख का विवाह हुआ गुणकेशी एवं सुमुख देखिये) । ( रामरावण युद्ध के समय, इन्द्र का रथ ले कर यह श्रीराम की सेवा में उपस्थित हुआ था । इसीके रथ में बैठ कर श्रीराम ने रावण वध किया था (म.व. २७४० १२ - २७ ) । ६३७
SR No.016121
Book TitleBharatvarshiya Prachin Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Shastri Chitrav
PublisherBharatiya Charitra Kosh Mandal Puna
Publication Year1964
Total Pages1228
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy